भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद पहली बार कैसे मिले थे?

 जिसमें शहीद-ए-आजम भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के बीच बैठक आयोजित करने में वीडी सावरकर की भूमिका का जिक्र है। पहले पढ़िए ऊपर के पेज में क्या लिखा है, 'दोनों बात कर रहे थे तभी सरदार भगत सिंह वहां आए। उसका गोरा लम्बा चेहरा, चेहरे पर तनी हुई छोटी मूछें, सिर पर टोपी और शर्ट का खुला कॉलर। वह अपने फॉर्म में शानदार लग रहे थे। उन्होंने सावरकर जी को प्रणाम किया।


"आप सही समय पर आए हैं भगत सिंह।" सावरकर ने भगत सिंह की ओर देखते हुए कहा।


"आदेश दे गुरुजी।" भगत सिंह ने कहा।


"आदेश देने के लिए कुछ भी नहीं है। पहले तुम उससे मिलो। लोग उन्हें चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानते हैं। "


सावरकर ने उन्हें एक-दूसरे से मिलवाया। भावुक होकर दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया। दोनों आज पहली बार मिले।


“आज आजाद बिस्मिल की फांसी से बहुत निराश हो रहे हैं। इसलिए आप सब मिलकर संगठन के काम को आगे बढ़ाएं।” सावरकर ने भगत सिंह को बताया।


इन दोनों बातों का मतलब है कि वीडी सावरकर और चंद्रशेखर आजाद आपस में बातचीत कर रहे थे. उनकी बातचीत काकोरी कांड के नायक राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी दिए जाने के संदर्भ में थी। फिर, भगत सिंह वहां आते हैं, और वह सावरकर को गुरु जी के रूप में संबोधित करते हैं, और तभी भगत सिंह आजाद से मिलते हैं।


अब देखिए भगत सिंह और आजाद की यात्रा का कालक्रम और तथ्य और काकोरी कांड। काकोरी कांड 09 अगस्त, 1925 को हुआ था और इसमें निम्नलिखित क्रांतिकारी शामिल थे। चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्लाह खान, योगेश चंद्र चटर्जी, प्रेम कृष्ण खन्ना, मुकुंदी लाल, विष्णु शरण दुब्लिश, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, राम कृष्ण खत्री, मनमथनाथ गुप्त, राजकुमार सिन्हा, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र नाथ लाहिरी, गोविंद चरणकर, रामदुलारे त्रिवेदी, रामनाथ पांडे, शचींद्रनाथ सान्याल, भूपेंद्रनाथ सान्याल, प्रणवेश कुमार चटर्जी। 1927 में 19 दिसंबर को गोरखपुर जेल में राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी दी गई थी। 10 दिसंबर, 1927 को राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खान को पहले ही फांसी दे दी गई थी। इस मामले की सुनवाई 1925 से 1927 तक चली और प्रिवी काउंसिल तक अपील की गई, लेकिन वीडी सावरकर का नाम नहीं लिया गया। 

कानपुर वह शहर था जहां भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, फणींद्रनाथ घोष, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से मिले थे। कानपुर तब ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलनों का केंद्र बन गया था। भगत सिंह के जीवन में कानपुर का बहुत बड़ा योगदान रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस शहर ने उनके विचारों को एक नई दिशा दी। वह एक पत्रकार के रूप में शहर में रहते थे, और इसी भूमिका ने उनकी सोच को एक धार दी। भगत सिंह 17 साल की उम्र में 1924 में पहली बार कानपुर आए थे। कहा जाता है कि भगत सिंह का परिवार उनकी शादी कराना चाहता था। भगत सिंह कहा करते थे कि 'जब तक उनका देश गुलाम है, वह शादी नहीं कर सकते।' भगत सिंह के शब्दों में, 'मेरी दुल्हन आजादी है, और उसे मरकर ही जीता जा सकता है।'

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