Dadabhai Naoroji Biography in Hindi


दादाभाई नौरोजी
(4 सितम्बर 1825 - 30 जून 1917)



Dadabhai Naoroji Biography in Hindi



जीवन परिचय
दादा भाई नौरोजी (4 सितंबर, 1825 ई. मुम्बई; मृत्यु- 30 जून, 1917 ई. मुम्बई) को ‘भारतीय राजनीति का पितामह’ कहा जाता है। वह दिग्गज राजनेता, उद्योगपति, शिक्षाविद और विचारक भी थे। श्री दादाभाई नौरोजी का शैक्षिक पक्ष अत्यन्त उज्ज्वल रहा। 1845 में एल्फिन्स्टन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक हुए। यहाँ के एक अंग्रेज़ी प्राध्यापक ने इन्हें ‘भारत की आशा’ की संज्ञा दी। अनेक संगठनों का निर्माण दादाभाई ने किया। 1851 में गुजराती भाषा में ‘रस्त गफ्तार’ साप्ताहिक निकालना प्रारम्भ किया। 1867 में ‘ईस्ट इंडिया एसोसियेशन’ बनाई। अन्यत्र लन्दन के विश्वविद्यालय में गुजराती के प्रोफेसर बने। 1869 में भारत वापस आए। यहाँ पर उनका 30,000 रु की थैली व सम्मान-पत्र से स्वागत हुआ। 1885 में ‘बम्बई विधान परिषद’ के सदस्य बने। 1886 में ‘होलबार्न क्षेत्र’ से पार्लियामेंट के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन असफल रहे। 1886 में फिन्सबरी क्षेत्र से पार्लियामेंट के लिए निर्वाचित हुए। ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ पुस्तक लिखी, जो अपने समय की महती कृति थी। 1886 व 1906 ई. में वह ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ के अध्यक्ष बनाए गए।



जन्म
दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर, 1825 को मुम्बई के एक ग़रीब पारसी परिवार में हुआ। जब दादाभाई 4 वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। उनकी माँ ने निर्धनता में भी बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई। उच्च शिक्षा प्राप्त करके दादाभाई लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में पढ़ाने लगे थे। लंदन में उनके घर पर वहां पढ़ने वाले भारतीय छात्र आते-जाते रहते थे। उनमें गांधी जी भी एक थे। मात्र 25 बरस की उम्र में एलफिनस्टोन इंस्टीट्यूट में लीडिंग प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय बने।
भारत को विदेशी दासता से मुक्त कराने और उसे उन्नति की ओर ले जाने वाले महापुरुषों में दादाभाई नौरोजी (Dadabhai Naoroji) का महत्वपूर्ण स्थान है | पिता नौरोजी पालन जी अपनी जाति के पुरोहित थे परन्तु दादाभाई के सिर से पिता का साया 4 वर्ष की उम्र में ही उठ गया | इस पर भी अनपढ़ किन्तु समझदार माँ ने अपने मेधावी पुत्र को उच्च शिक्षा दिलाई और दादाभाई एलिफिंस्टन इंस्टिट्यूट में गणित के प्रोफेसर हो गये | साथ ही वे सामाजिक कार्यो में रूचि लेते थे |

उनका कहना था कि हम समाज की सहायता से आगे बढ़ते है इसलिए हमे भी पुरे मन से समाज की सेवा करनी चाहिए | दादाभाई (Dadabhai Naoroji) का विचार था कि इंग्लैंड के लोगो को भारत की वास्तविक स्थिति बतानी चाहिए | इसका अवसर उन्हें एक भारतीय कम्पनी की लन्दन में खुल रही शाखा से मिला | कम्पनी ने अपना हिस्सेदार बनाकर उन्हें इंग्लैंड भेज दिया | वहा जाकर दादाभाई ने फर्म का काम करने के साथ साथ वहा पढ़ रहे भारतीय विद्यार्थियों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया |

Dadabhai Naoroji Biography in Hindi

उनके सम्पर्क में फिरोजशाह मेहता , मोहनदास करमचन्द गांधी , मुहम्मद अली जिन्ना आदि विद्यार्थी आये | उन्होंने “इंडियन सोसाइटी” और “ईस्ट इंडिया एसोसिएशन” नामक संस्था बनाई और भारत की स्थिति के संबध में लेख लिखकर लोगो का ध्यान आकृष्ट किया | दादाभाई (Dadabhai Naoroji) आदर्शवादी व्यक्ति थे | जिस फर्म के काम से वे गये थे उसमे उन्हें कुछ गडबडी नजर आई तो उन्होंने उसे छोड़ दिया | “दादाभाई नौरोजी एंड कम्पनी” नाम की अपनी संस्था बनाई और उसके माध्यम से 22 वर्ष तक इंग्लैंड में व्यापार करते रहे |

Dadabhai Naoroji Biography in Hindi

1881 में भारत आने पर उन्होंने शिक्षा के प्रसार पर बल दिया | देश के पक्ष में इंग्लैंड में उन्होंने जो आवाज उठाई ,उससे भारत-भर में उनकी ख्याति फ़ैल गयी | वे कांग्रेस के 1886 के कोलकाता अधिवेशन के , 1893 में लाहौर अधिवेशन और 1906 में कोलकाता कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये | दीर्घकाल तक इंग्लैंड में रहने से वहा के सामाजिक और राजनितिक जीवन में दादाभाई (Dadabhai Naoroji) का महत्वपूर्ण स्थान बन गया था | वहा की पार्लियामेंट में भारत का प्रतिनिधत्व करने वाले वे पहले व्यक्ति थे |

Dadabhai Naoroji Biography in Hindi

अपनी सदस्यता की अवधि में भी उन्होंने भारत के पक्ष में प्रचार जारी रखा | ICS की परीक्षा भारत और इंग्लैंड में साथ साथ कराने का निर्णय भी इन्ही के प्रयत्न से हुआ था | दादाभाई इतने प्रखर देशभक्त थे इसका परिचय 1906 की कोलकाता कांग्रेस में मिला | यहा उन्होंने पहली बार “स्वराज्य” शब्द का प्रयोग किया | उन्होंने कहा “हम कोई कृपा की भीख नही मांग रहे है हमे तो न्याय चाहिए” | दादाभाई (Dadabhai Naoroji) बीच बीच में इंग्लैंड जाते रहे परन्तु स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण वे प्राय: स्वदेश में रहे और 30 जून 1917 को 92 वर्ष की आयु में दादा भाई नौरोजी का देहांत हो गया | वे भारत में राष्ट्रीय भावनाओं के जनक थे | उन्होंने देश में स्वराज्य की नींव डाली |


राजनीति में
नौरोजी वर्ष 1892 में हुए ब्रिटेन के आम चुनावों में ‘लिबरल पार्टी’ के टिकट पर ‘फिन्सबरी सेंट्रल’ से जीतकर भारतीय मूल के पहले ‘ब्रितानी सांसद’ बने थे। नौरोजी ने भारत में कांग्रेस की राजनीति का आधार तैयार किया था। उन्होंने कांग्रेस के पूर्ववर्ती संगठन ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ के गठन में मदद की थी। बाद में वर्ष 1886 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उस वक्त उन्होंने कांग्रेस की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई। नौरोजी गोपाल कृष्ण गोखले और महात्मा गांधी के सलाहकार भी थे। उन्होंने वर्ष 1855 तक बम्बई में गणित और दर्शन के प्रोफेसर के रूप में काम किया। बाद में वह ‘कामा एण्ड कम्पनी’ में साझेदार बनने के लिये लंदन गए। वर्ष 1859 में उन्होंने ‘नौरोजी एण्ड कम्पनी’ के नाम से कपास का व्यापार शुरू किया। कांग्रेस के गठन से पहले वह सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी द्वारा स्थापित ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ के सदस्य भी रहे। यह संगठन बाद में कांग्रेस में विलीन हो गया। उन्होंने 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ‘कलकत्ता अधिवेशन’ की अध्यक्षता की। उनकी महान् कृति पॉवर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया ‘राष्ट्रीय आंदोलन की बाइबिल’ कही जाती है। वे महात्मा गांधी के प्रेरणा स्त्रोत थे। वे पहले भारतीय थे जिन्हें एलफिंस्टन कॉलेज में बतौर प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली। बाद में यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में उन्होंने प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाए दीं। उन्होंने शिक्षा के विकास, सामाजिक उत्थान और परोपकार के लिए बहुत-सी संस्थाओं को प्रोत्साहित करने में योगदान दिया, और वे प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘रास्ट गोफ्तर’ के संपादक भी रहे। वे अन्य कई जर्नल से भी जुडे़ रहे। वे सामाजिक कार्यों में भी रुचि लेते थे। उनका कहना था कि, ‘हम समाज की सहायता से आगे बढ़ते हैं, इसीलिए हमें भी पूरे मन से समाज की सेवा करनी चाहिए।’




योगदान
दादाभाई नौरोजी ने ‘ज्ञान प्रसारक मण्डली’ नामक एक महिला हाई स्कूल एवं 1852 में ‘बम्बई एसोसिएशन’ की स्थापना की। लन्दन में रहते हुए दादाभाई ने 1866 ई. मे ‘लन्दन इण्डियन एसोसिएशन’ एवं ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ की स्थापना की। वे राजनीतिक विचारों से काफ़ी उदार थे। ब्रिटिश शासन को वे भारतीयों के लिए दैवी वरदान मानते थे। 1906 ई. में उनकी अध्यक्षता में प्रथम बार कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में स्वराज्य की मांग की गयी। दादाभाई ने कहा “हम दया की भीख नहीं मांगते। हम केवल न्याय चाहते हैं। ब्रिटिश नागरिक के समान अधिकारों का ज़िक्र नहीं करते, हम स्वशासन चाहते है।” अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने भारतीय जनता के तीन मौलिक अधिकारों का वर्णन किया है। ये अधिकार थे-

लोक सेवाओं में भारतीय जनता की अधिक नियुक्ति।
विधानसभाओं में भारतीयों का अधिक प्रतिनिधित्व।
भारत एवं इंग्लैण्ड में उचित आर्थिक सबन्ध की स्थापना।

विदेश में
बंबई में एक पहचान क़ायम करने के बाद वे इंग्लैण्ड गए और वहाँ ‘भारतीय अर्थशास्त्र और राजनीति’ के पुनरुद्धार के लिए आवाज़ बुलंद की और हाउस ऑफ कॉमंस के लिए चुने गए। ‘भारतीय राजनीति के पितामह’ कहे जाने वाले प्रख्यात राजनेता, उघोगपति, शिक्षाविद और विचारक दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश उपनिवेश के प्रति बुद्धिजीवी वर्ग के सम्मोहन के बीच उसकी स्याह सचाई को सामने रखने के साथ ही कांग्रेस के लिये राजनीतिक ज़मीन भी तैयार की थी। उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेश के प्रति बुद्धिजीवी वर्ग के सम्मोहन को खत्म करने का प्रयास किया। दादाभाई नौरोजी को भारतीय राजनीति का ‘ग्रैंड ओल्डमैन’ कहा जाता है। वे पहले भारतीय थे जिन्हें ‘एलफिंस्टन कॉलेज’ में बतौर प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली। बाद में ‘यूनिवर्सिटी कॉलेज’, लंदन में उन्होंने प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाए दीं। उन्होंने शिक्षा के विकास, सामाजिक उत्थान और परोपकार के लिए बहुत-सी संस्थाओं को प्रोत्साहित करने में योगदान दिया, और वे प्रसिद्ध ‘साप्ताहिक रास्ट गोफ्तर’ के संपादक भी रहे। वे अन्य कई जर्नल से भी जुडे़ रहे। बंबई में एक पहचान क़ायम करने के बाद वे इंग्लैण्ड गए और व ‘भारतीय अर्थशास्त्र और राजनीतिक पुनरुद्धार’ के लिए आवाज़ बुलंद की और ‘हाउस ऑफ कॉमंस’ के लिए चुने गए।

नेताओं के आदर्श
1866 में लंदन में ‘ईस्ट इंडिया एसोशिएशन’ की स्थापना करके ब्रिटिश शासन का सर्वप्रथम आर्थिक विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले दादाभाई नौरोजी का नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में अग्रगण्य है। 1885 से 1907 के बीच कांग्रेस में नरमपंथी या उदारवादी नेताओं का बोलबाला था।


दादा भाई नौरोजी
सुरेंद्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, मदनमोहन मालवीय, गोपालकृष्ण गोखले, केटी तैलंग, फिरोजशाह मेहता आदि शांतिपूर्ण ढंग से मांगें मनवाने के लिए प्रयासरत थे। अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाना इन सभी नेताओं का एकमात्र लक्ष्य था। दादाभाई ने यह मांग उठाई कि इंग्लैंड की पार्लियामेंट में कम से कम एक भारतीय के लिए भी सीट सुनिश्चित होनी चाहिए। उनकी प्रखर प्रतिभा से प्रभावित और अकाट्य तर्को से पराजित होकर अंग्रेजों ने उनकी यह मांग मान ली। उन्हे ही इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया। अंग्रेजों की पार्लियामेंट में खड़े होकर उनके विरोध में बोलना दादाभाई जैसे व्यक्ति के लिए ही संभव था। उन्होंने बड़ी सूझबूझ से अपने इस दायित्व का निर्वहन किया। देश की स्वतंत्रता के लिए दादाभाई नौरोजी के मार्गदर्शन और उनके सक्रिय योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
देश और समाज की सेवा के लिए समर्पित दादाभाई नौरोजी नरमपंथी नेताओं के तो आदर्श थे ही, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जैसे गरमपंथी नेता भी उन्हे प्रेरणास्त्रोत मानते थे। तिलक ने दादाभाई के साथ रहकर वकालत का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। एक बार दादाभाई को किसी मुकदमे के संबंध में इंग्लैंड जाना पड़ा, उनके साथ सहायक के रूप में तिलक जी भी गए। दादाभाई मितव्ययिता की दृष्टि से लंदन में न ठहरकर वहां से दूर एक उपनगर में ठहरे। सवेरे जल्दी उठने की उनकी आदत थी। घर का सारा काम वे स्वयं करते थे। एक दिन जब वे घर का काम कर रहे थे तभी तिलक जी की आंख खुल गई। उन्होंने कहा क्या आज नौकर नहीं आया, जो सब काम आपको करना पड़ रहा है? इस पर दादाभाई ने तिलक जी को समझाते हुए कहा, मैं अपना काम स्वयं करता हूं। अपने किसी कार्य के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहता। सुनकर तिलक जी अभिभूत हो गए।


बड़ौदा के प्रधानमंत्री
लार्ड सैलसिबरी ने उन्हें ब्लैक मैन कहा था। हालांकि वह बहुत गोरे थे। उन्होंने संसद में बाइबिल से शपथ लेने से इंकार कर दिया था। अंग्रेज़ों की कारस्तानियों को बयान करने के लिए उन्होंने एक पत्र रस्त गोतार शुरू किया जिसे सच बातों को कहने वाला पत्र कहा जाता था। वर्ष 1874 में वह बड़ौदा के प्रधानमंत्री बने और तब वे तत्कालीन बंबई के लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य चुने गये। उन्होंने मुंबई में इंडियन नेशनल एसोसिएशन की स्थापना की जिसका बाद में कांग्रेस में विलय कर दिया गया।

देशभक्त
दादाभाई कितने प्रखर देशभक्त थे, इसका परिचय 1906 ई. की कोलकाता कांग्रेस में मिला। यहाँ उन्होंने पहली बार स्वराज शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने कहा, हम कोई कृपा की भीख नहीं माँग रहे हैं। हमें तो न्याय चाहिए।


निधन
दादाभाई बीच-बीच में इंग्लैण्ड जाते रहे, परन्तु स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण वे प्राय: स्वदेश में रहे और 92 वर्ष की उम्र में 30 जून, 1917 को मुम्बई भारत में ही उनका देहान्त हुआ। वे भारत में राष्ट्रीय भावनाओं के जनक थे। उन्होंने देश में स्वराज की नींव डाली।

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