सुमित्रा नन्दन पन्त
सुमित्रा नन्दन पन्त
सन्- (1900 - 1977)
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सुमित्रा नन्दन पन्त |
जीवन-परिचय - सुमित्रा नंदन पंत का जन्म 20 मई सं 1900 ईo को उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के एक गाँव कौसानी में हुआ था | इनके पिता का नाम गंगा दत्त पंत था | इनकी माता का नाम सरस्वती देवी था। सुमित्रा नंदन पंत के जन्म के 6 घंटे बाद ही इनकी माता का देहांत हो गया | मां का देहांत हो जाने के बाद इनका पालन – पोषण इनकी दादी ने किया था | पंत अपने सात भाई बहनो में सबसे छोटे थे | इनके परिवार वाले इनको बचपन में गुसाईं दत्त के नाम से पुकारते थे | पंत जब सात साल के थे उस समय से ही उन्होंने कविताएँ लिखना शुरू कर दिया | सात साल की उम्र वो उम्र होती है जिसमें बच्चा पढ़ना – लिखना सीखना शुरू करता है | लेकिन जब कोई बच्चा इतनी छोटी उम्र में कविताएँ लिखना शुरू कर दे तो उसकी भावनाओ को समझने के लिए गहरी समझ का होना आवश्यक है |
सात वर्ष की आयु से इन्होंने शिक्षा प्रारम्भ की। सुमित्रा नंदन पंत ने अपने प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से पूरी की | जब पंत 18 साल के थे तब वो अपने भाई के साथ बनारस चले गए थे जहां से इन्होने सन् 1918 जयनारायण हाई स्कूूूल से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की | सुमित्रा नंदन पंत को अपना नाम गुसाईं दत्त पसंद नहीं था इसलिए इन्होने अपना नाम बदलकर सुमित्रा नंदन पंत रख दिया | हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुमित्रा नंदन पंत स्नातक की पढाई करने के लिए इलाहाबाद चले गए | स्नातक की पढ़ाई के लिए पंत ने इलाहाबाद के म्योर कालेज में दाखिला लिया लेकिन सन् 1921 सत्याग्रह आंदोलन में महात्मा गाँधी का साथ देने के लिए इन्होने अपनी स्नातक की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी | इसके बाद सुमित्रा नंदन पंत की पढाई नहीं कर सके लेकिन उन्होंने घर पर ही हिंदी , अंग्रेजी , बंगाली साहित्य का अध्ययन करते हुए अपने पढाई को जारी रखा | कालान्तर में अध्ययन से आपकी ज्ञान-वृृद्धि और काव्य की प्रतिभा विकसित होती गई। दर्शन तथा साहित्य के अध्ययन से भावुकता आपकी संगिनी बन गई। संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी भाषाओं की छाप इनके जीवन पर पड़ी। आपकी साहित्यिक सेवाओं के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने अपको लोकायतन काव्य पर दस हजार रुपयों का विशेष पुरस्कार दिया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने आपको साहित्य वाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1969 में आपकी रचना चिदम्बरा पर भारतीय ज्ञानजीठ से एक लाख रुपयों का पुरस्कार प्राप्त हुआ। अपनी साहित्यिक प्रतिभा के कारण आकाशवाणी के निर्देशक पद को भी आपने सुशोभित किया। मॉं सरस्वती का यह पुजारी 28 दिसम्बर 1977 ई0 को की मृत्यु हो गई।
पंत जी की प्रमुख रचनाऍंं
काव्य संग्रह - वाणी, उच्छ्ववास, पल्लव, पल्लविनी, ग्रन्थि, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, मधु ज्वाला, खादी के फूल, युगपथ, उत्तरा, रजत शिखर, शिल्पी, गद्य-पथ, सौवर्ण, कला और बूढ़ा चॉंद, आधुनिक कवि भाग 1 और 2, रिश्मिबन्ध, कविश्री, लोकायतन, गीतहंस, अभिषेक, चिदम्बरा।
लोकायतन - इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक और दार्शिनिक विचारधारा व्यक्त हुई है। इस महाकाव्य में कवि ने ग्राम्यजीवन और जनभावना को भी छन्दोबद्ध किया है।
वीणा- इसमें पन्त जी के प्रारम्भिक गीत संग्रहीत है। इसमें प्रकृति के अपूर्व सौन्दर्य के चित्र देखने को मिलते है।
पल्लव - इस काव्य-संग्रह की रचनाओं ने पन्त जी को छायावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया है । इस संग्रह में प्रेम और सौन्दर्य के व्यापक चित्र प्रस्तुत किए गए है।
गुंजन - इसमें प्रकृति-प्रेम और सौन्दर्य से सम्बन्धित कवि की गम्भीर व प्रौढ़ रचनाऍं संकलित हुई है।
ग्रन्थि- इस काव्य संग्रह में मुख्य रूप से िवियोग का स्वर मुखरित हुआ है। प्रकृति यहॉं भी कवि की सहचरी है।
पुरस्कार/सम्मान :
"चिदम्बरा" के लिये भारतीय ज्ञानपीठ, लोकायतन के लिये सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिये उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया। सन 1905 में घर के पुरोहित द्वारा विद्यारम्भ कराये जाने के पश्चात् सुमित्रानंदन को कौसानी के वर्नाक्युलर स्कूल में प्रवेश दिलाया गया. संस्कृत तथा पर्शियन भाषा का ज्ञान इन्हें इनके फूफाजी ने कराया तथा अंग्रेजी व संगीत का ज्ञान भी इन्हें घर पर ही प्राप्त हुआ.
इस प्रकार घर पर ही पन्त जी को अपने कवि व्यक्तित्व के प्रस्फुटन का अनुकूल वातावरण प्राप्त होता रहा.अल्मोड़ा में इंटर फर्स्ट इयर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात, सेकंड इयर की पढाई करने के लिए ये अपने बड़े भाई के साथ बनारस चले गये. सन 1919 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुमित्रानंदन पन्त प्रयाग आ गये और 10 वर्ष तक प्रयाग में ही रहे. अपने ‘वीणा’ तथा ‘पल्लव’ काव्य संग्रह की अधिकांश कविताओ की रचना उन्होंने प्रयाग में ही की.
सन 1931 में पंतजी अपने बड़े भाई हरीदत्त पन्त के पास लखनऊ चले गये. जहाँ उनकी मुलाकात महाकवि ‘निराला’ व कालाकांकर स्टेट के कुंवर सुरेश सिंह व उनकी धर्मपत्नी से हुई. कुंवर सुरेश सिंह को उनका सानिध्य इतना भाया की कुछ ही समय में वह प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया. इसी मैत्री के फलस्वरूप उनके जीवन का अधिकांश समय कालाकांकर में बीता. कुंवर सुरेश सिंह के आग्रह पर ही उन्होंने वर्ष 1938 में रूपाभ नामक प्रगतिशील मासिक पत्रिका का संपादन किया.
साहित्य सृजन :
सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था। १९१८ के आसपास तक वे हिंदी के नवीन धारा के प्रवर्तक कवि के रूप में पहचाने जाने लगे थे। इस दौर की उनकी कविताएं वीणा में संकलित हैं। १९२६-२७ में उनका प्रसिद्ध काव्य संकलन ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ। कुछ समय पश्चात वे अपने भाई देवीदत्त के साथ अल्मोडा आ गये। इसी दौरान वे मार्क्स व फ्रायड की विचारधारा के प्रभाव में आये। १९३८ में उन्होंने ‘” नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला। शमशेर, रघुपति सहाय आदि के साथ वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुडे रहे।
वे १९५५ से १९६२ तक आकाशवाणी से जुडे रहे और मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया। उनकी विचारधारा योगी अरविन्द से प्रभावित भी हुई जो बाद की उनकी रचनाओं में देखी जा सकती है। “वीणा” तथा “पल्लव” में संकलित उनके छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। “युगांत” की रचनाओं के लेखन तक वे प्रगतिशील विचारधारा से जुडे प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक उनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखरस्वरोंकी उदघोषणा करती है।
उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पडाव हैं – प्रथम में वे छायावादी हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। १९०७ से १९१८ के काल को स्वयं उन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। इस काल की कविताएँ वीणा में संकलित हैं। सन् १९२२ में उच्छवास और १९२८ में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य कृतियाँ हैं - ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम आदि।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान :
1921 के असहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के नमक सत्याग्रह के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी देने का प्रयत्न उन्होंने युगवाणी (1938) और ग्राम्या (1940) में किया। यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है।
संग्रहालय :
उत्तराखंड राज्य के कौसानी में महाकवि पंत की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है, जिसकी देखरेख एक स्थानीय व्यक्ति करता है। इस स्थल के प्रवेश द्वार से लगे भवन की छत पर महाकवि की मूर्ति स्थापित है। वर्ष 1990 में स्थापित इस मूर्ति का अनावरण वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यनंद मिश्र द्वारा उनके जन्म दिवस 20 मई को किया गया था। महाकवि सुमित्रानंदन पंत का पैत्रक ग्राम यहां से कुछ ही दूरी पर है; परन्तु वह आज भी अनजाना तथा तिरस्कृत है। संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग में लायी गयी दैनिक वस्तुएँ यथा शॉल, दीपक, पुस्तकों की अलमारी तथा महाकवि को समर्पित कुछ सम्मान-पत्र, पुस्तकें तथा हस्तलिपि सुरक्षित हैं।
Thank u so much for this efforts
जवाब देंहटाएंयह लेख मेरे दिल को छू गया है। आपने वास्तविकता की गहराई में झांक दिया है। मेरा यह लेख भी पढ़ें सुमित्रानंदन पंत जीवन परिचय.
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