भगत सिंह

भगत सिंह 
(28 सितम्बर 1907 – 23 मार्च 1931)



भगत सिंह Bhagat singh
भगत सिंह


जीवन परिचय -

भारत माँ के वीर सपूत भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 में पंजाब के लायलपुर जिले के बावली या बंगा नामक गाँव (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। इनका जन्म एक सिख परिवार में हुआ था। इनका परिवार आर्य समाज से जुड़ा हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।

इनके 5 भाई थे और 3 बहनें थी जिसमें सबसे बड़े भाई जगत सिंह की मृत्यु 11 वर्ष की छोटी उम्र में ही हो गयी थी। अपने सभी भाई बहनों में भगत सिंह सबसे प्रखर, तेज और विलक्षण बुद्धि के स्वामी थे। भगत सिंह का परिवार पहले से ही देश भक्ति के लिये जाना जाता था। इनके पिता के दो भाई सरदार अजित सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह थे। भगत सिंह के जन्म के समय इनके पिता और दोनों चाचा जेल में बंद थे। भगत में भी देश भक्ति की भावना बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी। भगत सिंह का पूरा परिवार देशभक्ति के रंग में रंगा हुआ था। इनके दादाजी सरदार अर्जुन देव अंग्रेजों के कट्टर विरोधी थे। अर्जुन देव के तीन पुत्र थे (सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह)। इन तीनों में भी देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत थे। भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह ने 1905 के बंग-भंग के विरोध में लाला लाजपत राय के साथ मिलकर पंजाब में जन विरोध आन्दोलन का संचालन किया। 1907 में, 1818 के तीसरे रेग्युलेशन एक्ट के विरोध में तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई। जिसे दबाने के लिये अंग्रेजी सरकार ने कङे कदम उठाये और लाला लाजपत राय और इनके चाचा अजीत सिंह को जेल में डाल दिया गया।
अजीत सिंह को बिना मुकदमा चलाये रंगून जेल में भेज दिया गया। जिसके प्रतिक्रिया स्वरुप सरदार किशन सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह ने जनता के बीच में विरोधी भाषण दिये तो अंग्रेजों ने इन दोनों को भी जेल में डाल दिया। भगत सिंह के दादा, पिता और चाचा ही नहीं इनकी दादी जय कौर भी बहुत बहादुर औरत थीं। वो सूफी संत अम्बा प्रसाद, जो उस समय के भारत के अग्रणी राष्ट्रवादियों में से एक थे, की बहुत बङी समर्थक थीं। एक बार जब सूफी संत अम्बा प्रसाद जी सरदार अर्जुन सिंह के घर पर रुके हुये थे उसी दौरान पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिये आ गयी, किन्तु भगत सिंह की दादी जय कौर ने बङी चतुराई से उन्हें बचा लिया।
यदि भगत सिंह के बारे में गहनता से अध्ययन करें तो ये बात बिल्कुल साफ है कि भगत पर उस समय की तत्कालिक परिस्थितियों और अपने पारिवारिक परिप्रेक्ष्य का गहरा प्रभाव पङा। ये बात अलग है कि भगत सिंह इन सबसे भी दो कदम आगे चले गये।




मुख्य तथ्यः–
जन्मः
– 28 सितम्बर 1907
जन्म स्थानः– गाँव–बावली,जिला–लायलपुर,पंजाब (वर्तमान में पाकिस्तान में)
माता-पिताः– सरदार किसान सिंह साधु (पिता) व विद्यावती (माता)
भाईः– जगत सिंह, कुलवीर सिंह, कुलतार सिंह, राजेन्द्र सिंह, रनवीर सिंह
बहनः– बीबी अमर कौर, बीबी शकुन्तला, बीबी प्रकाश कौर
शिक्षाः– नेशनल कॉलेज लाहौर, दयानन्द अंग्लो-वैदिक स्कूल
प्रमुख संगठनः– नौजवान भारत सभा, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशियेशन, अभिनव भारत
उपलब्धियाँ:– भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनों को नयी दिशा दी, पंजाब में क्रान्तिकारी संदेश फैलाने के लिये नौजवान भारत सभा (मार्च,1926) की स्थापना, भारत को गणराज्य बनाने के लिये चन्द्रशेखर आजाद के साथ हिन्दूस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ की स्थापना, साण्डर्स द्वारा लाला लाजपत राय को मारने का बदला लेने के लिये साण्डर्स की हत्या, विधानमंडल में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम विस्फोट।
मृत्युः– 23 मार्च 1931, लाहौर जेल (पाकिस्तान)

Shaheed Bhagat Singh: India's symbol of martyrdom - Guruprasad's ...

प्रारम्भिक जीवन और शिक्षाः-

भगत सिंह की प्रारम्भिक शिक्षा उनके गाँव बंगा (बावली) के स्कूल में हुयी। वे अपने बड़े भाई जगत सिंह के साथ स्कूल जाते थे। भगत सिंह को उनके स्कूल के सभी बच्चे चाहते थे। वे बड़ी सहजता से सभी को अपना मित्र बना लेते थे। वे अपने मित्रों के बहुत चहते थे। कभी- कभी तो उनके मित्र उन्हें कधें पर बिठाकर घर छोङने आते थे।
किन्तु भगत सिंह अन्य सामान्य बच्चों की तरह नहीं थे, वे अक्सर चलती हुई कक्षा को छोङकर बाहर मैदानों में चले जाते थे। उन्हें कल-कल करती नदियों के स्वर, चिङियों का चहचहाना बहुत पसंद था। भगत पढ़ने में बहुत कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। वो एक बार जो पाढ कण्ठस्थ कर लेते थे उसे कभी नहीं भूलते थे।
भगत सिंह की आगे कि पढाई के लिये दयानन्द एंग्लो स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। यहाँ से इन्होंने मैट्रिकुलेशन पास किया। उस समय असहयोग आन्दोलन अपने चरम पर था, इस आन्दोलन से प्रेरित होकर भगत ने स्कूल छोङ दिया और आन्दोलन को सफल करने में जुट गये। इसके बाद इन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। इन्होंने स्कूल में प्रवेश के लिये आयोजित परीक्षा को आसानी से पास कर लिया।
यहाँ इनकी मुलाकात सुखदेव, यशपाल और जयप्रकाश गुप्ता से हुई जो इनके सबसे करीबी मित्र माने जाते हैं। इन्होंने 1923 में एफ.ए. पास करके बी. ए. के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। भगत सिंह बी.ए. में पढ़ रहे थे जब इनके परिवार वालों ने इनकी शादी के लिये सोचना शुरु किया। परिवार वालो के इस व्यवहार पर भगत घर छोङकर चले गये।

भगत सिंह का क्रान्तिकारी गतिविधियॉ की ओर झुकाव के कारण

भगत सिंह 12 वर्ष के थे, जब जलियावाला बाग हत्याकांड (1919) हुआ था। जिसका भगत के युवा मन पर बहुत गहरा प्रभाव पङा। औऱ इसी घटना से आहत होकर इनके मन में सशक्त क्रान्ति की चिंगारी फूटी। जब भगत कक्षा नौ में पढते थे, तभी वह पढाई छोङ कर कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेने के लिये चले जाते थे। गाँधी जी असहयेग आन्दोलन के आह्वान पर भगत सिंह ने भी डी.ए.वी. स्कूल छोङ दिया और आन्दोलन में सक्रिय रुप से भाग लेने लगे। वे अपने साथियों के साथ जगह जगह पर विदेशी कपङों और सामानों को इकट्ठा करके उनकी होली जलाते और लोगों को भी आन्दोलन में भाग लेने को प्रोत्साहित करते।
5 फरवरी 1922 को अकाली दल के द्वारा पुलिस वालों को थाने में बन्द करके आग लगाने की घटना के कारण गाँधी जी ने इस आन्दोलन के स्थगन की घोषणा कर दी। इस आन्दोलन के स्थगन ने भगत को बहुत अधिक हतोत्साहित किया और उनका गाँधीवादी नीतियों पर थोङा बहुत जो विश्वास शेष था वह भी समाप्त हो गया। उन्होंने गाँधीवादी सिद्धान्तों के स्थान पर क्रान्तिकारी विचारों का अनुसरण किया और भारत को आजाद कराने में जुट गये।
Real Photo of Shaheed Bhagat Singh in 1922 | Bhagat singh ...
Real Photo of Shaheed Bhagat Singh in 1922
असहयोग आन्दोलन की वापस लिये जाने के बाद भगत सिंह ने रुस, इटली और आयरलैण्ड की क्रान्तियों का गहन अध्ययन किया। इस गहन चिन्तन के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि क्रान्ति से आजादी हासिल की जा सकती है। इसी धारणा को मन में रखकर उन्होंने क्रान्ति के मार्ग का अनुसरण करके क्रान्तिकारी युवाओं को संगठित किया।

भगत सिंह की क्रान्तिकारी गतिविधियॉ

  • भगत सिंह बहुत युवा अवस्था से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे थे। 13 वर्ष की अवस्था में असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने के लिये उन्होंने स्कूल छोङ दिया।
  • असहयोग आन्दोलन के स्थगन के बाद भगत सिंह ने सिख सम्प्रदाय के आन्दोलन (गुरुद्वारा आन्दोलन) में भाग लिया। ये आन्दोलन सफल भी हुआ। किन्तु इस आन्दोलन में सिखों को सफलता मिल जाने के बाद उनमें रुढ़ीवाद और साम्प्रदायिक संकीर्णता का अंहकार बढ़ गया। इस कारण भगत सिंह ने इस से अपना नाता तोङ लिया।
  • सन् 1923–24 में गाँधी जी के आन्दोलन समाप्ति के बाद लोगों का उत्साह ठंडा पङ गया था, लोगों में फिर से स्वाधीनता की भावना को जागृत करने के लिये अपने साथियों सुखदेव और यशपाल के साथ नाटकों का आयोजन करना प्रारम्भ कर दिया। उनका पहला नाटय मंचन “कृष्ण विजय” था, जो महाभारत की कथा पर आधारित था। उसमें कहीं-कहीं संवादों को बदलकर अपने देशभक्ति से संबंधित संवादों का प्रयोग किया गया। कौरव पक्ष को अंग्रेजों की तरह और पांडवों को भारतवासियों की तरह प्रस्तुत किया गया था।
  • 1923 तक क्रान्तिकारी दल की सदस्यता प्राप्त करके प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के विशेष कृपा पात्र बन गये थे।
  • देश सेवा में खुद को समर्पित करने के उद्देश्य से 1923 में लाहौर (घर) को छोङकर सान्याल जी के कहने पर कानपुर चले गये।
  • अपनी क्रान्तिकारी क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिये अपना नाम बदलकर बलवन्त सिंह रख लिया और गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ ने सम्पादन विभाग में नियुक्त करा दिया और कुछ समय तक वहीं रहकर इसी नये नाम से लेख लिखने लगे।
  • छः महीने बाद अपनी दादी की अस्वस्था की सूचना मिलने पर शादी न करने की शर्त पर घर वापस आये।
  • नाभा के राजा रिपुदमन ने ननकाना सहाब में हुये गोली-काण्ड और राक्षसी लाठी चार्ज के विरोध में शोक सभा का आयोजन किया, जिसमें उन शहीदों की शोक-दिवस मनाने के लिये शोक-सभा का आयोजन किया। जिससे क्रोद्धित होकर अंग्रेजों ने उन्हें राज्य से हटा दिया और देहरादून में नजरबन्द कर दिया जिससे अंग्रेजों के अन्याय का विरोध करने के लिये अकालियों ने जत्थे निकाले। ऐसा ही एक जत्था भगत सिंह के गाँव बँगा से जाने वाला था और सरकार औऱ सरकारपरस्त लोग इन जत्थों को महत्वहीन साबित करने में ऐङी चोटी का जोर लगा रहे थे। भगत सिंह के पिता के कुटुम्ब के ही भाई लगने वाले सरदार बहादुर दिलबाग सिंह उन दिनों आनरेरी मजिस्ट्रेट बने थे तो उन्होंने घोषणा की कि इस गाँव में जत्थे को खाना पीना मिलना तो दूर, सूखा पत्ता भी नहीं मिलेगा। इन जत्थों के स्वागत का जिम्मा सरदार किशन सिंह ने भगत सिंह को दी थी। भगत जत्थों के स्वागत करने की तैयारी में लग गये। निश्चित समय पर उन्होंने न केवल जत्थों का धूमधाम से स्वागत किया बल्कि उनके स्वागत में सभा करके भाषण भी दिया। भगत सिंह के नाबालिग होते हुये भी सरकार ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट निकाला। भगत सिंह सावधान थे। वो इस सूचना को सुनकर भाग गये।
  • इस घटना के बाद भगत सिंह लाहौर से दिल्ली चले गये और अपने पहले नाम बलवन्त सिंह से ‘वीर अर्जुन’ में लिखने लगे।
  • मार्च 1926 में नौ जवान भारत सभा का गठन।
  • साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय को नेतृत्व करने के लिये तैयार करके साइमन के विरोध में आन्दोलन का आयोजन किया।
  • दिसम्बर 1928 में पंजाब-केसरी लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिये पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या।
  • काकोरी काण्ड के अभियुक्तों को जेल से छुङाकर भगाने का प्रयास।
  • 8 अप्रैल 1929 को असेंम्बली में साथी बटुकेश्वर दत्त और सुखदेव के साथ बम फेंका।
  • 15 जून 1929 को कैदियों के साथ एक जैसा व्यवहार, भोजन और अन्य सुविधाओं के लिये कैदियों के हक में भूख हड़ताल।

भगत सिंह की जेल यात्रा (29 जुलाई 1927) और रिहाई के बाद का जीवन

भगत सिंह कहीं बाहर से लौटे थे और अमृतसर स्टेशन पर उतरे थे। कुछ कदम आगे बढ़े ही थे तभी उन्होंने देखा कि एक सिपाही उनका पीछा कर रहा है। उन्होंने अपने कदम बढ़ा दिये तो उसने भी चाल बढ़ा दी। भगत सिंह दौङे और दोंनो के बीच आँख मिचौली शुरु हो गयी। दौङते हुये एक मकान के बोर्ड पर उनकी नजर गयी। उस पर लिखा था– सरदार शार्दूली सिंह एडवाकेट। भगत उस मकान के भीतर चलें गये। वकील सहाब मेज पर बैठे फाइल देख रहे थे। भगत ने उन्हें सारी स्थिति बताई और अपनी पिस्तौल निकाल कर मेज पर रख दी। वकील सहाब ने पिस्तौल मेज के भीतर डाला और नौकर को नाश्ता कराने का आदेश दिया।
कुछ देर बाद पुलिस वाला भी वहाँ पहुँच गया और वकील साहब से पूछा कि क्या उन्होंने किसी भागते हुये सिख नवयुवक को देखा है। वकील साहब ने कीर्ति दफ्तर की ओर इशारा कर दिया।
पूरे दिन भगत सिंह वकील साहब के घर पर ही रहे और रात को छहराटा स्टेशन से लाहौर पहुँचे। जब वो ताँगे से घर जा रहे थे उसी समय पुलिस ने ताँगे को घेर कर भगत को गिरफ्तार कर लिया।
इस गिरफ्तारी का नाम कुछ और आधार कुछ और था। लाहौर में दशहरे के मेले में किसी ने बम फेंक दिया था, जिससे 10-12 आदमियों की मृत्यु हो गयी और 50 से अधिक घायल हो गये थे। इसे दशहरा बम काण्ड कहा गया और इसी अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने यह अफवाह फैला दी कि यह बम क्रान्तिकारियों ने फेंका है।
देखने पर यह दशहरा बम काण्ड की गिरफ्तारी थी पर हकीकत में इसका मकसद काकोरी केस के फरारों और दूसरे सम्बन्धित क्रान्तिकारियों की जानकारी हासिल करना था। पुलिस यातनाओं और हजारों कोशिशों के बाद भी भगत ने उन्हें कुछ भी नहीं बताया। भगत 15 दिन लाहौर की जेल में रहें फिर उन्हें बिर्सटल की जेल में भेज दिया।
सरदार किशन सिंह की कानूनी कार्यवाहियों के कारण पुलिस भगत को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने को बाध्य हुई। कुछ सप्ताह बाद ही भगत सिंह से कुछ ना उगलवा सकने के कारण उन्हें जमानत पर छोङ दिया गया। भगत सिंह की जमानत राशि 60 हजार थी जो उस समय के अखबारों की सुर्खियों में रही।
Were Bhagat Singh, Sukhdev and Rajguru hanged on February 14, 1931 ...
Were Bhagat Singh, Sukhdev and Rajguru hanged on February 14, 1931 

जमानत पर आने के बाद उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया कि उनकी जमानत खतरे में आये और उनके परिवार पर कोई आँच आये। उनके लिये उनके पिता ने लाहौर के पास एक डेरी खुलवा दी। भगत सिंह अब डेरी का काम देखने लगे और साथ ही साथ गोपनीय रुप से क्रान्तिकारी गतिविधियों को भी अंजाम देते रहे। डेरी दिन में डेरी होती और रात में क्रान्तिकारियों का अड्डा। यहीं पर सलाह होती और योजनाओं का ताना बाना बुना जाता।
भगत सिंह जमानत मे जकङें हुये थे। इस जकङन को तोङने के लिये सरकार को अर्जियाँ देते रहते कि “या तो भगत पर मुकदमा चलाओं या फिर जमानत समाप्त करों”। बोधराज द्वारा पंजाब कौंसिल में भगत की जमानत के संबंध में सवाल उठाया गया, डॉ. गोपीचंद भार्गव का भी इसी विषय पर नोटिस पर सरकार ने भगत की जमानत समाप्त करने की घोषणा कर दी।
बम बनाने की कला को सीखाः–
सॉण्डर्स वध के बाद संगठन को चंदा मिलना प्रारम्भ हो गया था। अब हिंसप्रस को एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो बम वनाने की विद्या में कुशल हो। उसी दौरान कलकत्ता में भगत सिंह का परिचय यतीन्द्रदास से हुआ जो बम बनाने की कला में कुशल थे। बम बनाने वाला व्यक्ति मिल जाने पर भगत सिंह की इच्छा थी कि प्रत्येक प्रान्त का एक एक प्रतिनिधि ये शिक्षा ले ताकि भविष्य में बम बनाने वाले दुर्लभ न रहें।
कलकत्ता में बम बनाने के लिये प्रयोग होने वाली गनकाटन बनाने का कार्य कार्नवालिस स्ट्रीट में आर्यसमाज मन्दिर की सबसे ऊँची कोठरी में किया गया। उस समय यह कला सीखने वालों में फणीन्द्र घोष, कमलनाथ तिवारी, विजय और भगत सिंह मौजूद थे।
कलकत्ता में बम बनाना सीखने के बाद सामान को दो टुकङियों में आगरा भेजा गया। आगरा में दो मकानों का प्रबन्ध किया गया एक हींग की मण्डी में दूसरा नाई की मंण्डी में। नाई मण्डी में बम बनाने की कला को सिखाने के लिये सुखदेव और कुन्दल लाल को भी बुलाया गया।

असेंबली में बम फेंकने की योजना

असेंबली में बम फेंकने का विचार भगत के मन में नेशनल कॉलेज के समय से ही थी और जब वो कलकत्ता से आगरा के लिये जा रहे थे उसी दौरान उन्होंने कार्य की रुप रेखा तैयार कर ली थी। इस योजना को कार्यरुप देने के लिये दिल्ली में जयदेव कपूर ऐसे विश्वसनीय सूत्रों को जोङने में लगे थे जिससे कि जब चाहें असेम्बली में जाने का पास मिल जाये। इन पासों से भगत, आजाद और दूसरे कई साथी वहाँ जाकर पूरी रुप रेखा बना आये थे कि कहाँ से बम फेंका जाये और कहाँ जाकर गिरे।
Durga Devi Vohra: 'Wife' of Bhagat Singh
Durga Devi Vohra: ‘Wife’ of Bhagat Singh
इस योजना के बाद तीन प्रश्न उठे। ये प्रश्न थे कि बम कब फेंका जाये, कौन फेंके और बम फेंकने के बाद भागा जाये या गिरफ्तार हुआ जाये। आजाद चाहते थे कि बम फेंकने के बाद भागा जाना सहीं है क्योंकि वह सभा में जाकर सब रास्तों को देखने के बाद समझ गये थे कि बम फेंक कर आसानी से भागा जा सकता है। उनकी योजना थी कि बाहर मोटर रखेंगें और बम फेंकने वालो को आसानी से भगा ले जायेंगे।
किन्तु भगत सिंह गिरफ्तार होने के पक्ष में थे। वह गुप्त आन्दोलन को जनता का आन्दोलन बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि गिरफ्तार हुआ जाये और मुकदमें के जरिये जनता को अपने विचारों से अवगत कराया जाये। क्योंकि जो बातें ऐसे नहीं कहीं जा सकती उन्हें मुकदमें के दौरान अदालत में खुले तौर पर कहा जा सकता है। और उन बातों को समाचार पत्र वाले सुर्खियाँ बनाकर प्रस्तुत करेंगें। जिससे आसानी से जन जन तक अपने संदेश को पहुँचाया जा सकता है।
असेम्बली में बम फेंकने की योजना भगत सिंह की थी तो सभी जानते थे कि बम फेंकनें भी वही जायेंगें। सभा में विजय कुमार सिन्हा ने भगत का समर्थन किया तो इनकी बात का महत्व और अधिक बढ़ गया।
यह सब बातें हो ही रहीं थी कि समाचार मिला कि होली के दिन असेम्बली के सरकारी लोगों की दावत के निमंत्रण को वायसराय ने स्वीकार कर लिया है। इस सूचना पर सभा में तुरंत तय किया गया कि वायसराय पर ही आक्रमण किया जाये। इस कार्य के लिये राजगुरु, जयदेव कपूर और शिव वर्मा को नियुक्त क्या गया। वायसराय पर बम कब, कैसे, कहाँ फेंकना है सब तय हो गया। किन्तु वायसराय के तय रास्ते से न आने के कारण यह योजना असफल हो गयी। इसके बाद पुनः असेम्बली पर बम फेंकने का निश्चय किया गया।
केन्द्रीय असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पेश होने थे। जिसमें पहले बिल (पब्लिक सेफ्टी बिल) का उद्देश्य देश के अन्दर के आन्दोलनों को असफल करना था और दूसरे बिल (ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल) का उद्देश्य मजदूरों को हङताल के अधिकार से वंचित रखना था। भगत सिंह ने इसी अवसर पर असेम्बली में बम फेंकने का निर्णय लिया और अपने उद्देश्य को स्पष्ट करने के लिये साथ में पर्चें भी फेंकने का निर्णय लिया गया।
8 अप्रैल 1929 को दोनों बिलों पर जब वायसराय की घोषणा सुनायी जाने वाली थी उसी दिन बम फेंकने का निर्णय लिया गया। हिंसप्रस के सभी साथियों को दिल्ली छोङकर जाने का आदेश दिया गया था। दिल्ली में केवल शिव वर्मा और जयदेव कपूर को रुकना था। जय देव कपूर ने दोनों (भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त) को उस जगह पर बिठा दिया जहाँ से बिना किसी को नुकसान पहुँचाये बम को आसानी से फेंका जा सकें।
जैसे ही वायसराय के विशेषाधिकारों के द्वारा बिल पास होने की घोषणा हुई, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त अपने स्थानों पर खङे हो गये और एक के बाद एक दो बम लगातार फेंकें और उन बमों के साथ सभा, गैलरी और दर्शक दिर्घा में अपने उद्देश्यों के पर्चें भी फेंकें । असेम्बली में चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। जब बम फटने के बाद का काला धुँआ हटा तो हाल खाली था। सदस्यों में केवल तीन लोग पं.मदन मोहन मालवीय, मोती लाल नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना बैठे हुये थे। और बटुकेश्वर दत्त व भगत सिंह अपनी जगह पर खङे थे। बम फेंकने के बाद उन्होंने पूरे जोश से नारा लगाया – “इंकलाब जिन्दाबाद! साम्राज्यवाद का नाश हो।”
भगत सिंह और दत्त के आत्मसमर्पण करने के बाद उन्हें दिल्ली थाने में ले जाया गया। उनके द्वारा फेंके गये पर्चों में से एक पर्चा हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता नें बङी चतुराई से उठा लिया और उसे शाम के संस्करण में छाप भी दिया। जब भगत और दत्त से कोतवाली में बयान देने को कहा गया तो उन दोनों ने ये कहते हुये इंकार कर दिया कि हमें जो कुछ कहना है वो अदालत में ही कहेंगें। पुलिस ने उन्हें दिल्ली जेल में डाल दिया।
Remembering Bhagat Singh through some rare pictures from the chapters of his life  
Here is an old photo of the place in Lahore jail (Pakistan) where Bhagat Singh was hanged


भगत और दत्त की गिरफ्तारी के बाद

गिरफ्तारी के बाद 24 अप्रैल 1929 को उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा। 3 मई 1929 को उनकी भेंट अपने पिता किशन सिंह से हुई। उनके पिता के साथ आसफअली वकील साहब भी आये थे। सरदार किशन सिंह बचाव पक्ष में पूरी ताकत और ढंग से मुकदमा लङने के पक्ष में थे, किन्तु भगत सिंह अपने पिता के इस निर्णय से सहमत नहीं थे। भगत जी ने आसफअली जी से कुछ कानून पूछे औऱ उस समय की बातचीत समाप्त हो गयी।
7 मई 1929 को मिस्टर पूल जो कि उस समय एडीशनल मजिस्ट्रेट थे की अदालत में जेल में ही सुनवाई प्रारम्भ हुई। किन्तु भगत सिंह ने दृढ़ता से कहा कि हम अपना पक्ष सेशन जज के सामने ही रखेंगे। इसी कारण उनका केस भारतीय कानून की धारा 3 के अधीन सेशन जज मि. मिल्टन की अदालत में भेजा गया और दिल्ली जेल में सेशन जज के अधीन 4 जून 1929 को मुकदमा शुरु हुआ। 10 जून 1929 को केस की सुनवाई समाप्त हो गयी और 12 जून को सेशन जज ने 41 पृष्ठ का फैसला दिया जिसमें दोनों अभियुक्तों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया। और इस पूरी सुनवाई के दौरान जिस बात ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा वो भगत सिंह की स्वंय के बचाव के प्रति निर्लिप्तता थी। आजीवन कारावास के बाद भगत सिंह को मिंयावाली जेल और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर जेल में भेज दिया गया।
इसके बाद अपने विचारों को और व्यापक रुप से देशवासियों के बीच पहुँचाने के लिये इस केस के लिये हाई कोर्ट में अपील की गयी और उस अपील की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने फिर से अपने विचार देशवासियों तक पहुँचाये और धीरे-धीरे लोग उनका अनुसरण करने लगे। भगत सिंह का लक्ष्य काफी हद तक सफल हो रहा था।
13 जनवरी 1930 को सेशन जज के फैसले को बहाल रखते हुये आजन्म कारावास का दण्ड सुना दिया।
Remembering Bhagat Singh through some rare pictures from the chapters of his life  
Bhagat singh’s family members


भगत सिंह द्वारा जेल में भूख हङताल (15 जून 1929– 5 अक्टूबर 1929)

असेम्बली बम काण्ङ के मुकदमे के दौरान भगत सिंह और दत्त को यूरोपीयन क्लास में रखा गया। वहाँ भगत के साथ अच्छा व्यवहार हुआ, लेकिम भगत सभी के लिये जीने वाले व्यक्तियों में से एक थे। वहाँ जेल में उन्होंने भारतीय कैदियों के साथ हो रहे दुर्व्यहार और भेदभाव के विरोध में 15 जून 1929 को भूख हङताल की। उन्होंने अपनी एक जेल से दूसरी जेल में बदली के सन्दर्भ में 17 जून 1929 को मियावाली जेल के अधिकारी को पत्र भी लिखा। उनकी यह माँग कानूनी थी अतः जून के अन्तिम सप्ताह में उन्हें लाहौर सेट्रल जेल में बदल दिया गया। उस समय वह भूख हङताल पर थे। भूख के कारण उनकी अवस्था ऐसी हो गयी थी कि कोठरी पर पहुँचाने के लिये स्ट्रेचर का सहारा लिया गया।
10 जुलाई 1929 को लाहौर के मजिस्ट्रेट श्री कृष्ण की अदालत में आरम्भिक कार्यवाही शुरु हो गयी। उस सुनवाई में भगत और बटुकेश्वर दत्त को स्ट्रेचर पर लाया गया। इसे देख कर पूरे देश में हाहाकार मच गया। अपने साथियों की सहानुभूति में बोस्टर्ल की जेल में साथी अभियुक्तों ने अनशन की घोषणा कर दी। यतीन्द्र नाथ दास 4 दिन बाद भूख हङताल में शामिल हुये।
Rare documents on Bhagat Singh's trial and life in jail - The Hindu

14 जुलाई 1929 को भगत सिंह ने अपनी माँगों का एक पत्र भारत सरकार के गृह सदस्यों को भेजा, जिसमें निम्न माँगे की गयी थीः–
  • राजनीतिक कैदी होने के नाते हमें भी अच्छा खाना दिया जाना चाहिये, इसलिये हमारे भोजन का स्तर भी यूरोपीयन कैदियों की तरह होना चाहिये। हम उसी तरह की खुराक की मांग नहीं करते, बल्कि खुराक का स्तर वैसा चाहते है।
  • हमें मशक्कत के नाम पर जेलों में सम्मानहीन काम करने के लिये बाध्य न किया जाये।
  • बिना किसी रोकटोक के पूर्व-स्वीकृति (जिन्हें जेल अधिकारी स्वीकृत कर लें) पुस्तकें पढ़ने और लिखने का सामान लेने की सुविधा मिलनी चाहिये।
  • कम से कम एक दैनिक पत्र हर एक राजनैतिक कैदी को मिलना चाहिये।
  • हरेक जेल में राजनीतिक कैदियों का एक वार्ड होना चाहिये, जिसमें उन सभी आवश्यकताओँ की पूर्ति की सुविधा होनी चाहिये, जो युरोपियन लोगों के लिये होती है और एक जेल में रहने वाले सभी राजनैतिक कैदी उसी वार्ड में रहने चाहिये।
  • स्नान के लिये सुविधायें मिलनी चाहिये।
  • अच्छे कपङे मिलने चाहिये।
  • यू.पी. जेल सुधार समिति कमेटी में श्री जगतनारायण और खान बहादुर हाफिज हिदायत अली हुसैन की यह सिफारिश कि राजनीतिक कैदियों के साथ अच्छी क्लास के कैदियों जैसा व्यवहार होना चाहिये, हम पर लागू होना चाहिये।
सरकार के लिये भूख हङताल उसके सम्मान की बात बन गयी थी। इधर भगत का भी हर दिन 5 पौण्ड वजन घटता जा रहा था। 2 सितम्बर 1929 में सरकार ने जेल इन्क्वायरी कमेटी की स्थापना की।
13 सितम्बर को भगत सिंह के साथ–साथ पूरा देश दर्द से तङप गया और आसुओं से भीग गया जब भगत सिंह के मित्र और सहयोगी यतीन्द्रनाथ दास भूख हङताल में शहीद हो गये।
यतीन्द्रनाथ दास के शहीद होने पर पूरे देश में आक्रोश की भावना उमङ रही थी। इधर सरकार इस भूख हङताल से परेशान थी। सरकार और देश के नेता दोनों ही अपने-अपने तरीकों से इस भुख हङताल को बन्द कराना चाहते थे। इसी उद्देश्य से सरकार द्वारा नियुक्त जेल कमेटी ने अपनी सिफारिशें सरकार के पास भेज दी। भगत सिंह को अंदेशा हो गया था कि उनकी माँगो को बहुत हद तक मान लिया जायेगा। भगत सिंह ने कहा – “हम इस शर्त पर भूख हङताल तोङने को तैयार है कि हम सबको एक साथ ऐसा करने का अवसर दिया जाये।” सरकार ये बात मान गयी।
5 अक्टूबर 1929 को भगत सिंह नें 114 दिन की ऐतिहासिक हङताल अपने साथियों के साथ दाल फुलका खाकर भूख हङताल समाप्त की।

भगत सिंह को फाँसी की सजा

ब्रिटिश सरकार जल्द से जल्द इस केस (लाहौर षङ्यंत्र) को अन्तिम मोङ दोकर समाप्त करना चाहती थी। इसी उद्देश्य से 1 मई 1930 में गवर्नल जनरल लार्ड इरविन ने एक आदेश जारी किया। इसके अनुसार 3 जजों का एक स्पेशल ट्रिब्यूनल नियुक्त किया गया। जिसे यह अधिकार प्राप्त था कि अभियुक्तों की अनुपस्थिति में सफाई वकीलों और सफाई गवाहों के उपस्थित हुये बिना और सरकारी गवाहों से जिरह के अभाव में भी यह मुकदमे का एक तरफा फैसला कर सकती है। 5 मई 1930 को इस ट्रिब्यूनल के सामने लाहौर षङ्यंत्र केस की सुनवाई शुरु हुई।
Shaheed Bhagat Singh pics Shaheed Bhagat Singh FB images 1

13 मई 1930 को इस ट्रिब्यूनल के बहिष्कार के बाद फिर से एक नये ट्रिब्यूनल का निर्माण किया जिसमें जस्टिस जी. सी. हिल्टन – अध्यक्ष, जस्टिस अब्दुल कादिर – सदस्य, जस्टिस जे. के. टैप – सदस्य थे। इसी ट्रिब्यूनल ने 7 अक्टूबर, 1930 की सुबह एक तरफा फैसला सुनाया। ये फैसला 68 पृष्ठ का था जिसमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी, कमलनाथ तिवारी, विजयकुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गयाप्रसाद, किशोरीलाल और महावीर सिंह को आजन्म काला पानी की सजा मिली। कुन्दल लाल को 7 साल और प्रेमदत्त को 3 साल की सजा सुनाई गयी।
सरकार के रवैये से बिल्कुल तय था कि चाहे कुछ भी हो जाये वह भगत सिंह को तो फाँसी अवश्य देगी। इस फैसले के खिलाफ नवम्बर 1930 को प्रिवि कौंसिल में अपील कर दी गयी। किन्तु इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ।
24 मार्च को 1931 को भगत सिंह को फाँसी दिया जाना तय हो गया। किन्तु सरकार ने जन विद्रोह से बचने के लिये 23 मार्च 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दे दी गयी और ये महान अमर व्यक्तित्व अपने देशवासियों में देश प्रेम की भावना जगाने के लिये शहीद हो गये।

भगत सिंह के अनमोल वचन

  • “जो व्यक्ति भी विकास के लिए खड़ा है उसे हर एक रूढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमे अविश्वास करना होगा तथा उसे चुनौती देनी होगी।”
  • “जिंदगी तो सिर्फ अपने कंधों पर जी जाती है, दूसरों के कंधे पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।”
  • “ज़रूरी नहीं कि क्रांति में अभिशप्त संघर्ष शामिल हो। यह बम और पिस्तौल का पथ नहीं था।”
  • “मेरा धर्म देश की सेवा करना है।”
  • “यदि बहरों को सुनाना है तो आवाज़ को बहुत जोरदार होना होगा। जब हमने बम गिराया तो हमारा ध्येय किसी को मारना नहीं था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था। अंग्रेजों को भारत छोड़ना चाहिए और उसे आज़ाद करना चहिये।”
  • “प्रेमी, पागल और कवि एक ही चीज से बने होते हैं।”
  • “राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है। मैं एक ऐसा पागल हूं जो जेल में भी आजाद है।”
  • “देशभक्तों को अक्सर लोग पागल कहते हैं।”
  • “मैं एक मानव हूँ और जो कुछ भी मानवता को प्रभावित करता है उससे मुझे मतलब है।”
  • “क्रांति मानव जाति का एक अपरिहार्य अधिकार है। स्वतंत्रता सभी का एक कभी न ख़त्म होने वाला जन्म-सिद्ध अधिकार है। श्रम समाज का वास्तविक निर्वाहक है।”
  • “क़ानून की पवित्रता तभी तक बनी रह सकती है जब तक की वह लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति करे।”
  • “इंसान तभी कुछ करता है जब वो अपने काम के औचित्य को लेकर सुनिश्चित होता है, जैसाकि हम विधान सभा में बम फेंकने को लेकर थे।”
  • “किसी भी कीमत पर बल का प्रयोग ना करना काल्पनिक आदर्श है और नया आन्दोलन जो देश में शुरू हुआ है और जिसके आरम्भ की हम चेतावनी दे चुके हैं वह गुरु गोबिंद सिंह और शिवाजी, कमाल पाशा और राजा खान , वाशिंगटन और गैरीबाल्डी , लाफायेतटे और लेनिन के आदर्शों से प्रेरित है।”
  • “मैं इस बात पर जोर देता हूँ कि मैं महत्त्वाकांक्षा, आशा और जीवन के प्रति आकर्षण से भरा हुआ हूँ। पर मैं ज़रुरत पड़ने पर ये सब त्याग सकता हूँ, और वही सच्चा बलिदान है।”
  • “अहिंसा को आत्म-बल के सिद्धांत का समर्थन प्राप्त है जिसमे अंतत: प्रतिद्वंदी पर जीत की आशा में कष्ट सहा जाता है। लेकिन तब क्या हो जब ये प्रयास अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल हो जाएं? तभी हमें आत्म-बल को शारीरिक बल से जोड़ने की ज़रुरत पड़ती है ताकि हम अत्याचारी और क्रूर दुश्मन के रहमोकर्म पर निर्भर ना रहें।”
  • “…व्यक्तियो को कुचल कर, वे विचारों को नहीं मार सकते।”
  • “आम तौर पर लोग एक जैसी चीजेों की आदि हो जाती हैं और बदलाव के विचार से ही कांपने लगते हैं। हमें इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलने की ज़रुरत है।”
  • “किसी को ‘क्रांति’ शब्द की व्याख्या शाब्दिक अर्थ में नहीं करनी चाहिए। जो लोग इस शब्द का उपयोग या दुरूपयोग करते हैं उनके फायदे के हिसाब से इसे अलग अलग अर्थ और अभिप्राय दिए जाते हैं।”
  • “निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं।”

कोई टिप्पणी नहीं

Blogger द्वारा संचालित.