रसखान

रसखान
(सन् 1548-1628 ई.)



रसखान (सन् 1548-1628 ई.)
जीवन-परिचय - रसखान का पूरा नाम सैयद इब्राहीम रसखान था। इनका जन्‍म सन् 1548 ई. के लगभग दिल्‍ली में हुआ माना जाता है। इनका जीवन - वृत्‍त अभी भी अन्‍धकार में है। इनका सम्‍बन्‍ध दिल्‍ली के राजवंश से था।
डॉ. नगेन्‍द्र के अनुसार इन पंक्तियों में उल्लिखित गदर और दिल्‍ली के श्‍मशान बन जाने का समय विद्वानों ने सन् 1555 ई. अनुमानित किया है, क्‍योकि इसी वर्ष मुगल-सम्राट् हुमायूँ ने दिल्‍ली के सूरवंशीय पठानशासकों से अपना खोया हुआा शासनाधिकार पुन: हस्‍तगत किया था। इस अवसर पर भयंकर नर-संहार और विध्‍वंस होना स्‍वाभाविक था और कवि-प्रकृति के कोमल हदय रसखान द्वारा उस गदर के ताण्‍डव रूप को देखकर विरक्‍त हो जाना भी अस्‍वाभविक नहीं। कवि ने जिस बादशाह-वंश की ठसक का त्‍याग किया, वह वही पठान (सूर) वंश प्रतीत होता है, जिसके शासन का उदय शेरशाह सूरी के साथ सन् 1528 ई. में हुआ और अन्‍त इब्राहीम खॉं तथा अहमद खॉं के पारस्‍पारिक कलह के कारण सन् 1555 ई. में हुआ। इस गदर के समय रसखान की आयु यदि बीस-बाईस वर्ष मान ही जाए तो जन्‍म सन् 1533 ई. के आस-पास स्‍वीकार किया जा सकता है। कुछ समय पहले तक यह माना जाता रहा है कि रसखान पिहानी के सैयद इब्राहीम का ही उपनाम था, किन्‍तु परवर्ती अनुसन्‍धानों के आधार रर यह धारणा मिथ्‍या सिद्ध हो चुकी है। प्रेमवाटिका में स्‍वयं कवि द्वारा दिल्‍ली छोड़कर गोवर्धन-धाम जाने के उल्‍लेख से उनका जन्‍म-स्‍थान एवं प्रारम्भिक निवास दिल्‍ली अथव उसके आस-पास ही मानना उपयुक्‍त है।
एक जनश्रुति के अनुसार रसखान किसी स्‍त्री से बहुत प्रेम करते थे, किन्‍तु वह उन्‍हें अपमानित किया करती थी। वैष्‍णव धर्म में दीक्षा लेने पर इनका लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में बदल गया और रसखान श्रीकृष्‍ण के अनन्‍य भक्‍त बन बये। रसखान रात-दिन श्रीकृष्‍ण के प्रेम में तल्‍लीन रहते थे। इन्‍होंने गोवर्धन धाम में जाकर अपना जीवन श्रीकृष्‍ण के भजन-कीर्तन में लगा दिया। वैष्‍णव धर्म ग्रहण करने पर इन्‍हें सबने बहुत डराया, परन्‍तु श्रीकृष्‍ण के रंग में रँगे रसखान नेे उत्‍तर दिया-
काहे को सोचु करै रसखानि, कहा करिहै रंबिनंद बिचारो।
कौन की संक परी है जु, माखन चाखनवारो है राखनहारो।।
प्रसिद्ध है कि रसखान ने गोस्‍वामी विट्ठलनाथ जी से वल्‍लभ-सम्‍प्रदाय के अन्‍तर्गत दीक्षा ली थी। उनके काव्‍य में अन्‍य वल्‍लभनुयायाी कृष्‍णभक्‍त कवियों-जैसी प्रेम-माधुरी एवं भक्ति-शैली से इस बात की पुष्टि होती है। दो सौ बावन वैष्‍णवन की वार्ता में भी उन्‍हें वल्‍लभसम्‍प्रदायानुयायी बताया गया है। मूल गुसाई चारित  में गोस्‍वामी तुलसीदास द्वार स्‍वरचित रामचारिमानस की कथा सर्वप्रथम रसखान को सुनाने का उल्‍लेख है:
जमुना तट पैत्रय वत्‍सर लौ, रसखानहिं जाई सुनावत भी। रसखान-काव्‍य के प्राय: सभी समीक्षक इस बात पर सहमत है कि प्रेमवाटिका 1614 उनकी अन्तिम काव्‍य-कृति है। सम्‍भवत: इसकी रचना के कुछ ही वर्ष पश्‍चात् सन् 1628 ई. के लगभग उनका देहावसान हो गया होगा।
कुष्‍णभक्‍त कवियों में रसखान का महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। श्रीकृष्‍ण की भक्ति में पूर्ण रूप से अनुरक्‍त होकर ही इन्‍होंने अपनी कविताऍं लिखी। ये अरबी और फारसी के विद्वान् थे। रसखान श्रीकृष्‍ण के अनन्‍य प्रेमी थे। इसी कारण ये दिल्‍ली के शाही जीवन को त्‍यागकर ब्रज के कूंज-करीलों पर न्‍योछावर हो गए। इनकी भक्ति गोजी भाव की थी। कृष्‍ण के बाल रूप एवं यौवन के अनेक मोहक रूप रसखान की विताओं में वित्रित हुए हैं। इनके काव्‍य में संयोग और वियोग पर आधारित दोनों ही पक्षों की भावपूर्ण अभिव्‍यक्ति देखने को मिलती है। श्रीकृष्‍ण की भक्ति, उनकी लाला-भूमि ब्रज ता ब्रजभाषा में इनका प्रबल अनुराग, यही रसखान का सब कुछ था। वस्‍तुत: श्रीकृष्‍ण से सम्‍बान्धित प्रतयेक वस्‍तु अथवा स्‍थान से इनका अगाध प्रेम था।

कृतियॉ- रसखान के अब तक दो ग्रन्‍थ प्राप्‍त है।
  • प्रेमवाटिका - इसमें केवल 25 दोहे है।
  • सुजान-रसखान - यह 139 छन्‍दों का संग्रह है।

कुछ विद्वान् रसखान-शतक और राग-रत्‍नलाकर को भी उनकी रचना मानते है, लेकिन ये ग्रन्‍थ उपलब्‍ध नहीं 

शैली- रसखान ने अपने काव्‍य में सरल और परिमार्जित शैली का प्रयोग ि‍किया है। इन्‍होंने कवित्‍त एवं सवैया छन्‍दों के माध्‍यम से अपने भावों को अभिव्‍यक्त दी है।

रसखान कृष्‍ण भक्ति शाखा के कवि थे।
रसखान के आराध्‍य देव का नाम श्रीकृष्‍ण है।
रसखान की भाषा ब्रजभाषा है रचना सुजान रसखान, प्रेमवाटिका

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