Khajuraho Temple खजुराहो का मंदिर
खजुराहाे के दर्शनीय मंदिर
मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में छतरपुर जिले के अन्तर्गत पन्ना एवं छतरपुर, के मध्य में स्थित यह पर्यटक स्थल 10वीं एवं 11वीं शताब्दी में बने हुए हिंदू मंदिरों के लिये विश्वविख्यात है। इतिहास के प्रारंभ से 9वीं शताब्दी तक जबकि चन्देला राज्य वंश का उदय हुआ यह क्षेत्र किसी विशेरूा राज्य का ही हिस्सा रहा।
ये मंदिर किवदन्ती के खजुराहो में बने थे उनमें से अब केवल 22 ही मंदिर बचे हैं। उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार उन्हे प्रमुखत: तीन समूहों के रूप में देखा जा सकता है पश्चिमी समूह पूर्वी समूह एवं दक्षिणी समूह।
पश्चिमी समूह
खजुराहो गांव से पश्चिम की ओर होने के कारण पश्चिमी समूह खजूराहो के प्रमुख मंदिरों का समूह खजुराहो के प्रमुख मंदिरो का समूह है एवं सबसे महत्वपूर्ण है। इस समूह में चौसठ योगनी मंदिर व ललगुंवा महादेव मंदिर भी आते है जो कि समूह में दूर स्थित है तथा बहुत दर्शनीय भी नहीं हैं किन्तु स्थापत्य कला के क्रमिक विकास को देख सकने के उद्देश्य से उल्लेखनीय है।
चौसठ योगिनी मंदिर
यह खजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर है इछवीं शताब्दी के लगभग बना हुआ यह मंदिर चन्देल राज्यवंशके अस्तित्व में आने के लगभग 300 वर्ष पूर्व से हां ह। इस मंदिर की यहॉ उपस्थ्िति इस बात की द्योतक है कि चन्देलाओं के अस्तित्व में आने के पहले यहां तन्त्र दर्शन का बहुत प्रभाव था क्योंकि चौसठ योगनियों की पूजा तांत्रिकों के द्वारा ही की जाती थी। यह मंदिर पूर्णत: लावा पत्थर का बना हुआ ळै। कन्दारिया महादेवमंुदिर से करीब 3 फर्लांग दक्षिण की ओर स्थित यह मंदिर उत्तरमुखी है।
लावा पत्थर (कणाश्य पत्थर) की ही शिलााओं के मध्य बना यह मंदिर 5.4 मीटर उंचा है। उपर की ओर से यह मंदिर खुला हुआ है तथा इसकी आकृृति चौकोर है 31.4 मीटर, 18.3 मीटर यह चतुष्कोषीय मंदिर शुरू में 67 छोटे-छोटे गर्भगृहों के सााि बनाया गया था। जिसमें चौसठ योगनियों तथा अन्य देवियों की प्रतिमायों स्थित थी। अब इन 67 छोटे-छोटे गर्भगृहोंं में से केवल 35 ही बचे हुए है एवं उनमें भी किसी प्रकार की मूर्तियां नहीं है। ये सभी पूर्णत: खाली है, अगर बहुत अधिक रूचि व समय न हो तो इस मंदिर को कन्दारिया महादेव मंदिर के चबूतरे से भीी देखा जा सकता है।
इस मंदिर को उल्लेख लक्ष्मण मंदिर की जगती के चारों ओर हुये जन-जीवन के चित्रणें में से पूर्णिमा की रात्रि के सामूहिक संभोग के दृश्योंं (लक्ष्मण मंदिर जगतों का दक्षिण पूर्वीय कोना) के संदर्भ में भी किया जाता है। कहते है कि वाम मार्गीय तंत्रिकों के द्वारा यह समारोह पूर्णिमा की हर रात को चौसठ योगिनी के इस मंदिर में सम्पन्न होता था।
ललगुंवा मंदिर
चौसठ योगिनी मंदिर से 600 मीटर पश्चिम की ओर यह मंदिर ललगुंवा सागर के किनारे भगवानर शिव के लिये बनाया गया था यह एक सााारण आकार का पश्चिमाभिमुखी मंदिर है जिसमें शिखर पिरामिड आकार का है। गर्भगृह अब पूर्णत: खाली पड़ा है तथा मंदिर के सामने नन्दी की एक सुन्दर प्रतिमा है। 900 ई. के लगभग बने इस मंदि की तुलना खजुराहो के ब्रहा मंदिर से भी की जा सकती है। इस समय तक बालू पत्थर (कर्णाश्य पत्थर) की तो खेज हो चुकी थी पर लावा पत्थर (कर्णाश्य) का फिर भी प्रयोग होता था।
मतंगेश्वर मंदिर
चन्देला राजाओं केद्वारा बनवाये गये मंदिरों में मतंगेश्वर ही पहला मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण हर्षवर्मन ने 920 ई. के लगभग करवाया था। खजुराहो के पुरात्तव मंदिरों में यह ही एक मात्र ऐसा मंदिर है जिसमें अब भी पूजा जाठ होता है तथा लोकमत के अनुसार निर्माण काल से निरन्तर होता आया है। यह खजुराहो का पवित्रतम मंदिर है। मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसमें सबसे पहले महाराज हर्षवर्मन ने मरकतमणी नामक मणी की स्थापना की थी, इस मणि को भगवान शिव ने खुद युधिष्ठर से ही चलकर यह मणि हर्षवर्मन तक पहुंची थी। इस मणी की स्थापना के उपरान्त ही वृहत जंघा तथा लिंग की स्थापना की गई थी। जंघा का व्यास7.2 है एवं इसमें स्थित लिंग 2.5 मीटर डंचा तथा 1.1 मीटर व्यास का लिंग है जो अपने तरह का एक ही है।
बालू पत्थर का बना हुआ यह मंदिर शिल्पकारी की दृष्टि से ब्रहमा मंदिर का ही विशालरूप है। उंची जगती के डपर सामने सीढि़याें से सुसज्जित गर्भगृह का द्वार है। गर्भगृृहमें जंघा एवं शिवलिंग की स्थापना है। मंदिर की छत वर्गाकार सुन्दर तथा विशाल है। गर्भगृह के तीन और अहातेदार झरोखे है जिनमें से उत्तरी झरोखे से होकर नीचे की ओर सीढि़यां बनी है। मंदिर का एक ही शिखर सूच्याकार या पिरामिड शैली का है प्रवेश द्वार के उपर शिखर पर गडे़ हुये मुकुट से शिखर का सौन्दय द्विगुणित हो जाता है। मंदिर के चबूतरे के दक्षिण ओर 1880 में बना हुआ जार्डन संग्रहालय दिखलाई देता है जो कि अब पुरात्तव विभाग का अवशेष भण्डार है।
वराह मंदिर
लावा पत्थर की काफी उंची नींव पर बना हुआ बालू पत्थर का यह मंदिर आयताकार मण्डप के रूप में बना हुटा है। इसका शिखर मतंगेश्वर मंदिर की ही तरह सूच्याकार था पिरामिड की शैली का है यह अयताकार शिखर 14 स्तम्भों पर खड़ा है। इस मंदिर में भगवान विष्णु के वराह रूप को दिखलाया गया है। वृहत एवं एक ही पत्थर की बनी हुई 2.6 मीटर लम्बी इस मूर्ती को विशेषरता इसके डपर बनी छोटी अनगिनत देव देवियों की प्रतिमायें है। यह वराह भगवान के उस रूप को दिखलाती है जब से हिरणाक्ष नामक राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर लाये थे। पृथ्वी की एकवृहत प्रतिमा भी यहां थी जी वराह के दक्षिण पश्चिमी ओर अंकित अब शेष रहे केवल पैरों के द्वारा दृष्टिगत होती है। यह पृथ्वी की प्रतिमा भी लगभग 2.4 मीटर उंची थी ऐसा प्रतीत होता है। वराह भगवान के इस रूप के नीचे शेषनाग को भी भक्ति भाव में दिखलाया गया है। तथा उनके सिर पर स्थ्ति पृथ्वी को भी दिखलाया गया है।
मंदिर की छत सुन्दर कमल के फूल की आकृति से सुसज्जित है। प्रमुखत: दो टुकड़ों में बने हुए कमल की विशेषता है कि यह सहस्त्र दल पदम् का प्रतीक है। यह मंदिर मतंगेश्वर मंदिर के पश्चात तथा लक्ष्मण मंदिर के पहले निर्मित हुआ ऐसा प्रतीत होता है। लगभग 925 ई. में इसका निर्माण हुआ था।
लक्ष्मण मंदिर
लगभग 930 में बना हुआ विष्णु का यह मंदिर यशेवर्मन नामक राजा ने बनवाया थाद्य इनका एक नाम लक्ष्मण वर्मन भी था इसलिए ही यह मंदिर लक्ष्मण मंदिर कहलाया । पंचायतन शैली में बना हुआ यह मंदिर खजुराहो में अब प्राप्त सभी मंदिराें में एबसे सुरक्षित स्थिती में स्थित है। लोकमत के अनुसार लक्ष्मण वर्मन ने मथुरा से 16 हजार शिल्पकारें को इस मंंदिर के निर्माण के लिए बलवाया था, तथा लगभग 7 वर्ष की अवधि में उन्होंने यह मंदिर बनाकार तैयार किया था।
मतंगेश्वर मंदिर से उत्तर की ओर स्थ्ति यह मंदिर भगवान विष्णु का मंदिर है तथा वैकुण्ठ का प्रतीक है। गर्भगृह में स्थित भगवान विष्णु को प्रतिमा भी उनके इसी विशेष रूप से दिखलाती है। यह मंदिर सान्धार है तथा पंचायतन शैली में बना है यह ही एक मात्र ऐसा मंदिर है जिसका चबूतरा भी अपनी प्रारम्भिक स्थित में सुरक्षित है। चबूतरे के उपर चारों कोनों में चार उप मंदिर है जो कि प्रमुख देवताओं पारिवारिक देवाताओं को दिखलाते है, तथा मंदरि के ठीक सामने भी एक छोटा मंदिर है जो कि भगवान विष्णु के वाहन गरूण का मंदिर रहा होगा। अब उसमें देवी ब्रहामाणी की प्रमिमाहै तथा लक्ष्मी मंदिर के नाम से जाना जाता है। इन्हीं पांच उपमंदिरों से सुसज्ज्ति होने के कारण यह पंचायतन शैली का खजुराहे में बना हुआ पहला मंदिर है।
प्रमुख मंदिर के प्रवेश द्वार पर भगवान सूर्य की अदिती रूप में प्रतिमा है उन्हें हाथ में कमल के दो फुल लिये रथारूढ़ दिखलाया गया है चबूतरे के दक्षिण पूर्वी कोने के उपमंदिर में गज लक्ष्मी की प्रतिमा हे। प्रमुख मंदिर पर एक विहंगय दृष्टि डालने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि पूर्ण मंदिर चन्दन की लकड़ी का बनाकर तैयार किया गया ळै। जबकि मंदिर बालू पत्थर का बना हुआ है। मंदिरों का निर्माण मानचित्रों के अनुसार छोटे-छोटे टुकड़ों में 30 किलोमीटर की दूरी पर केन नही के पूर्वी किनारों पर स्थित बालू पत्थर की खादानों में हुआ। हर स्तर के लिये विशेष तरह की साज सज्जा विचार का शिल्कार ने छोटे-छोटे टुकड़ों में उन्हें गढ़ा तथा उन टुुकड़ों पर संख्या अंकित कर उन्हें खजुराहो भेजा और यहां उन्हें उनकी संख्याओं के अनुसार नीचे से उपर की ओर जोड़-जोड़कर, पहले वेदी बंध फिर दीवार एवं उसके उपर शिखरों के रूप में इन्हें बनाया।
प्रमुख मंदिरी की बायें से दायें ओर की परिक्रमा में हमें सर्वप्रथम विध्नेश्वर भगवान गणेश की प्रतिमा देखने को मिलती है। जमती से वेदीबन्ध तक हमें बेलबूटों एवं कीर्तिमुख तथा हाथियों की एक लाइन दिखलाई देती है। उसके उपर छोटी-छोटी प्रतिमाओं की दो लाइनें है जिनतें नृत्य संगीत, शिकार, युद्व, मैथुन इत्यादि के दृश्य है उस सादांशत: यह कहा जा सकता है कि इन लाइनों में उस सुग की झंाकियों है। जिसमें यह मंदिर निर्मित हुये इन्हें देखकर उस समय के रहन-सहन रीति-रिवाज व परंपराओं को जाना जा सकता है। छोटी-छोटी प्रतिमाओं की इन दो लाइनों से उपर प्रमुख दीवार प्रारभं होती है जिस पवर प्रमुखत: बड़ी प्रतिमाओं की दो लाइनें बनी हुई है। ये प्रतिमायें 2 फिट उंची है।
कतारों के मध्य की मूर्तियां प्रमुखत: चतुर्भुजी है अर्थात देवप्रतिमायें है उपर की कतार में विष्णु तथा नीचे की कतार में शिव की प्रतिमायें अपने विशेष चिन्हों यथा-विष्णु तथा नीचे की कतार में शिव की प्रतिमायें उपने विशेष चिन्हों यथा-विष्णु शंख, चक्र, गदा, पद्म, एवं शिव त्रिशुल, नाग, रूद्राक्ष की माला व कमण्डल के साथ, प्रमुखत: अभय तथा वरद मुद्राओं में दिखलायें गये है। इन चतुर्भुजी देव प्रतिमाओं के दोनोंओरसंसार प्रसिद्धसुर-सुन्दरियों, देव दासियों नाग कन्याओं इत्यादि की विभन्नि भाव भंंगिमाओंमें प्रतिमायें है। इनमें से दक्षिण पूर्वीय कोने की विष्णु के दाहिने ओर की नायिका आलस मुद्रा में, उसी के नीचे शिव के दाहिने ओर की आयिका स्नान के बाद बालों को निचोड़ते हुये तथा इसकी कोने में दृष्टव्य उपर की ही कतार में प्रेम पत्र लिखते हुये नायिका का चित्रण विशेष उल्लेखनीय है आगे बए़कर हम आल की कार्तिकेय भगवान की मूर्ति को पार करते हुय मंदिर की मध्य दीवार को देखते है। इन प्रमुख दो कतारों के उपर मध्य में आग्न देवता का चित्रण हुआ। उनके नीचे मध्य में देव गन्धवों को दिखलाया गया है तथा सबसें नीचे राजा-रानी, तांत्रिक, पुरोहित एवं योगिनी के साथ की उत्तरी दीवार पर इन्ही लोगों के समूह को इस अनुष्ठान की दूसरी क्रिया सम्पन्न करते हुये दिखलाया गया है। नायिकाओं से उपर की कतार में जहां देव तथा गन्धवों को दिखलाया गया है, उसके दहिने ओर ही कालिदास की नायिका शकुन्तला का चित्रण किया गया है। जो कि अपने बालों को निचोड़ रही है एवं उसके पांव के पास है हंसो के एक जोडे़ को दिखलाया गया है जो कि इस धोंखे में कि शकुतंला के शरीर से पानी की बूंदें नही वनर् मोती टपक रहे हे, उन्हें चुगने को चले आये है। यह कल्पना कवि कालिदास ने अपने ग्रंथ अभिज्ञान शकंन्तलम् में की है कि शकुंंतला इतनी सुन्दर थी कि जब वह स्नान कर सरोवर से निकलती थी तो पानी की बूंदे उसके शरीर पर यूं प्रतीत होती थी जैसे मोती, और हंस उसके पीछे दौड़े चले आते थे। देव गंधवों के बायें ओर एक नायिका का चित्रण है जो एक उत्तरीय शरीर पर धारण किये है तथााउसके अतिरिक्त पूर्ण नग्न है। इसके हाथें में भिक्षाापात्र तथा एक दण्ड है यह तंात्रिकों के कोला समूह की योगिनी है, जो कि शरीर पर केवल एक छोटी उत्तरीय धारण कर विचरण किया करती थी एवं भिक्षाटन द्वारा निर्वाह करती थी।
इसी दक्षिणी मध्य दीवार पर नीचे की लाइन में राजा-रानी के आलिंगन के बायें ओर एक नायिका को अपनी वांह के नीचे पीठ पर नख चिन्ह देखते हुये दिखलाया गया है जोकि वात्सायन के कामवूत्र के उस सिद्धांत की पुष्टी करता है जिसके अनुसार नायक नायिका को एक दूसरे को काम उत्तेतेजिकरने के लिये नख-दन्त इत्यादि का प्रयोग करना चाहिये। इसी प्रतिमााके दाहिने ओर शिव की प्रतिमा के पश्चात् एक देवदासी का चित्रण है जो कि अपने दायें हाथ पर एक तोते को बिठाये हुए है। कहते है पुराने समय में खजुराहो नगर में देवदासियां एवं नगर वधुयें भी रहा करती थी जिनसे मिलने सैनिक सामन्त शंति के समय में आया करते थे। 64 कलाओं में पारंगत इन देवदासियों को प्रतीक यही तोते हुआ करते थे जो कि इनके धरों के दरवाजों पर पिंजड़ों में लटके रहा करते थे ओर इन्हें देखकर सौनिक सामन्त यह जाना करते थे कि यह घर किसी देवदासी या नगर वधु का है। इसी पंक्ति में कोन की एक मैथुन मुद्रा के बाद पांव में से कोंटार निकालतें हुये एक नायिका का बहुत सुन्दर चित्रण हुआ है। इसकें अतिरिक्त कई उन्नेखनीय प्रतिमायें यथा शकुन्तला के दाहिन ओर मां बालक को नौकर से लेते हुये इत्यादि बनी हुई है सभी प्रतिमायें बहुत ही प्रवणहै और आगे बढ़कर हम मंदिर के दिक्षण पश्चिमी कोने में पहुंचते है। यहां के उपमंदिर के अन्दर भगवान विष्णु की शेषशासी प्रतिमा है।
पार्वती मंदिर
विश्वनाथ मंदिर से दक्षिण पश्चिम की ओर सिथ त यह मंदिर पूर्णत: नया निर्मित किया गया है एवं ईट एवं चूने से बना है। 1880 के लगभग इसका पुन: निर्माण किया गया था- इसके प्रवेश द्वारा पर उसी तरह तीन लोक अंकित है जैसे कि अन्य सभी मंदिरों में प्रवेश द्वासरों पर अंकित है। गर्भगृह में समभंगा स्थिति में बनी भगवती पार्वती की प्रतिमा है। मंदिर केवल एक ही शिखर से सुस्सज्जित है व गर्भगृह के रूप में बृहत चबूतरे पर निर्मित है।
विश्वनाथ मंदिर
लक्ष्मण मंदिर के बाद बना हुआ यह मंदिर लगभग 1002 ई. में महाराजा घन्गदेव वर्मन के द्वारा निर्मित किया गया था। यह मंदिर भी लक्ष्मण मंदिर के सदृश्य ही पंचायतन शैली में निर्मित किया गया था। किन्तु समय के कारण अब केवल दो उप मंदिर उत्तर पश्चिम कोनो में ही स्थित है बाकी दक्षिण पूर्व एवं उत्तर पश्चिम कोनो के उप मंदिर टूट युके हैं। मंदिर के सामने का नन्दी मंदिर जो कि विश्वनााि मतंदिर के ही चबूतरे प बना है भी दशेन्ीय है। महाराजा घन्गदेव वर्मन के समय में चवन्देला राजय वंश ने उन्नति की और अपनी समद्धि के शिखर पर पहूचे। घन्गदेव वर्मन ने इस मंदिर का निर्माण काशी को विजित करने के उपरांत करवाया था।
इसव मंदिर कमी संरचना लगभग लक्ष्मण मंदिर जैसी ही है बाहा रूप से देखने पर सर्वप्रथम भगवाानश्री गणेश की प्रतिमा मिलती है जो यहां जैसे धर्म उपदेश देते हुए ज्ञान मुद्रा में दिखलाये गए है। तदनन्तर आगे के प्रमुख आलों में सप्त मात्रिकाओं यथा चामुण्डा, इंछ्राणी वाराही वैष्णवी, कौमारी, महेश्वरी व ब्रहम्णीका चित्रण है अंत के आले में नटेश्वर रूप में भगवान शिव का ही चित्रण हुआ है। वेदीबन्ध एवं प्रमुख दीवार के बीच में मंदिर में भी छोटी-छोटी प्रतिमाओं की दो लाइनें मिलती है जिसमें इस युग के जीवन की झांकियां है। समृृद्धि का समय होने के कारण इन लाइनों के इन छोटे-छोटे पैनलों में ऐसे दृश्यों का चित्रण हुआ हइै, जो कि एक समृद्ध समाज में होते हे, नृत्य, संगीत, रासलीलााव तरह-तरह के उतसव का चित्रण बहुताया से हुआ है। विवाह इत्यादि के दृृृश्य राजय सभाओं के दृश्य इत्यादि उल्लेखनीय है। मंदिर के दूसरे आले जिसमें भगवती चामुण्डा की मूर्ति है के दायें ओर इन छोटी मूतियों की डपरी लाइन में एक दृश्य है जिसमें शिल्पकार ने दर्शाया है कि किस प्रकार से मंदिरों पत्थरों को 30 किलो मीटर की दूरी से यहां तक कन्धों पर ढो-ढोकर लाया गया था।
मंदिर की प्रमुख दीवार पर प्रतिमाओं की तीन लाइनें है जिनमें मध्य में लक्ष्मण मंदिर के ही सदृश्य देव प्रतिमायें है, नीचे की लाइन में आठ कोनेां पर अष्ट दिग्वालों की प्रतिमायें है। देव प्रतिमाओं के दोनों ओर नायिकाओं का विभिन्न मुद्राओं में चित्रण हुआ है विषय भिन्नता एवं विविधता की दृृृष्टिसेइस मंदिर में लक्ष्मण मंदिर के अधिक प्रतिमायें है। इस मंदिर में नागकन्याओं का चित्रण नही है एवं चंवर डुलाने वाली दासियों का भी चित्रण हुआ है। केश विन्यास की विभीन्नता एवं तरह-तरह के आभूषणाें से सुसज्जित यह मूर्तियां बड़ी ही भाव प्रवण है व लक्ष्मण मंदिर से कहीं अधिक प्रकार के भावों को दिखलाती है।
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