अक्षय तृतीया क्यों मनाई जाती है और क्या है इसका महत्व





अक्षय तृतीया क्यों मनाई जाती है और क्या है इसका महत्व


अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। वैसे तो सभी बारह महीने की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख महीने की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है।


अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, रसोई, और वस्त्र आदि दान द्वारा ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए और नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरी घडे, कुल्हड, सकोरे, पक्के, खडौन, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली , सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे सभी वस्तुओं का स्वर्ग या अगला जन्म लेंगे। होगी प्राप्त होगा। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल या सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिए।


  • ऐसी भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा विशेष फलदायी मणि गई है। इस दिन किया गया आचरण और सत्कर्म अक्षय रहता है। 
  • भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। 
  • ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था। 
  • इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही खुलते हैं। 
  • वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। 
  • इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था।

जैन धर्म में अक्षय-तृतीया 

जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है। इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (ब्रडी-गन्ने) रस से पारायण किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने और अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक और पारिवारिक सुखों के त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते-करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहाँ उनके पौत्र सोमयश का शासन था। प्रभु का आगमन सुनकर सम्पूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर को आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध वस्तु के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत या पारायण किया। जैन धर्मावलंबियों का मानना ​​है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया और अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया है।










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