Dadasaheb Phalke
दादासाहेब फालके(30 अप्रैल 1870 - 16 फ़रवरी 1944)
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भारत सरकार की ओर से दिया जाने वाला एक वार्षिक पुरस्कार है, जो किसी व्यक्ति विशेष को भारतीय सिनेमा में उसके आजीवन योगदान के लिए दिया जाता है। इस पुरस्कार का प्रारंम्भ दादा साहेब फाल्के के जन्म शताब्दी वर्ष 1969 से हुआ। 'लाइफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड' के रूप में दिया जाने वाला 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' भारत के फ़िल्म क्षेत्र का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है। प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक समिति की सिफारिशों पर यह पुरस्कार प्रदान किया जाता है।
प्रारंभिक जीवन :
दादासाहेब फालके कुछ प्रसिद्ध फिल्में :
• राजा हरीशचंद्र (1913),
• मोहिनी भस्मासुर (1913),
• सत्यवान सावित्री (1914),
• लंका दहन (1917),
• श्री कृष्णा जन्म (1918) ,
• कालिया मर्दन (1919).
रोचक तथ्य :
प्रारंभिक जीवन :
दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक के निकट त्र्यम्बकेश्वर नामक तीर्थ स्थल पर हुआ था | दादा साहेब एक ब्राह्मण मराठी परिवार से थे जिनका वास्तविक नाम धुंडीराज गोविंद फालके था | धुंडीराज गोविंद फालके के पिता नासिक के जाने माने विद्वान थे जिनकी कारण धुंडीराज गोविंद फालके को बचपन से ही कला में रूचि थी |
1885 में जब वो पन्द्रह वर्ष के हुए तब उन्होंने बम्बई के J. J. School of Art में दाखिला लिया जो उस समय कला का बड़ा शिक्षा केंद्र था | 1890 में J. J. School of Art से चित्रकला सीखने के बाद फाल्के ने बडौदा के प्रशिध Maharaja Sayajirao University के कला भवन में दाखिला लिया जहा से उन्होंने चित्रकला के साथ साथ फोटोग्राफी और स्थापत्य कला का भी अध्ययन किया |
अब कला और फोटोग्राफी की पढाई पुरी करने के बाद उन्होंने फोटोग्राफर का काम शुरू कर दिया जिससे उनका जीवन चल सके | सबसे पहले उन्होंने शुरुवात एक छोटे शहर गोधरा से की लेकिन उन्हें ये काम बीच में ही छोड़ना पड़ गया क्योंकि उनकी पत्नी और बच्चे की प्लेग में मौत हो गयी थी | वो इस सदमे को बर्दाश्त नही कर पाए और गोधरा में नौकरी छोड़ दी |
जब वो इस सदमे से उबरे तब उनकी मुलाकात एक जर्मन जादूगर Carl Hertz से हुयी जो उस समय के महान Lumiere Brothers के यहा नौकरी करते थे |1903 में फाल्के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में मानचित्रकार बन गये लेकिन 1905 के स्वदेशी आन्दोलन के चलते वो राजकीय सेवा से निवृत हो गये |
1913 की फिल्म राजा हरीशचंद्र से उन्होने अपने फिल्मी करियर की शुरुवात की थी और आज लगभग हर तरह की फिल्म वे कर चुके है, 1937 तक उन्होने 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में अपने करियर के 19 सालो में बनाई. उनके सम्मान में 1969 में भारत सरकार ने दी दादा साहेब फालके अवॉर्ड (जीवनभर योगदान के लिये) घोषित किया गया.
भारतीय सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण को गरीमाप्राप्त पुरस्कारों में से एक दादा साहेब फालके पुरस्कार माना जाता है. उनके चेहरे का एक पोस्टल स्टैम्प भी 1971 में भारतीय डाक द्वारा शुरू किया गया था. दादासाहेब फालके अकादमी, मुम्बई ने भी उनके सम्मान मे 2001 साल में कई पुरस्कार घोषित किये.
धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके (मराठी : दादासाहेब फाळके) वह महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का 'पितामह' कहा जाता है। दादा साहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वह लगे हुए थे, 1910 में उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया।
उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे।
अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने। फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ बनायी।
फाल्के ने 1912 में अपनी पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई, जो एक मूक फिल्म और देश की पहली फीचर फिल्म थी। फिल्म के निर्माण में लगभग 15 हजार रुपये खर्च हुए। उस समय यह एक बहुत बड़ी राशि थी। फाल्के ने किसी तरह फिल्म पूरी की तो इसका प्रदर्शन एक बड़ी समस्या बन गया। उन दिनों नाटकों का बोलबाला था। दो आने में लोग छह घंटे के नाटक का आनंद लेते थे। ऐसे में तीन आने खर्च कर एक घंटे की फिल्म कौन देखता।
शायद यही वजह थी कि फाल्के ने दर्शकों को आकर्षित करने के लिए एकदम नए ढंग से इसका विज्ञापन किया। 'सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र'। भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का विज्ञापन कुछ इसी प्रकार का था। 03 मई, 1913 को मुंबई के कोरोनेशन थियेटर में इसे दर्शकों के लिए प्रदर्शित किया गया। दर्शक एक पौराणिक गाथा को चलते-फिरते देखकर वाह-वाह कर उठे। भारत की पहली फिल्म दर्शकों के सामने थी।
मूक फिल्म होने के कारण परदे के पीछे से पात्रों का परिचय और संवाद आदि बोले जाते थे। उस समय महिलाओं के किरदार पुरुष ही किया करते थे, इसलिए फिल्म में रानी तारामती की भूमिका सालुंके नामक युवक ने निभाई। वर्ष 1932 में प्रदर्शित हुई 'सेतुबंधन' फाल्के की अंतिम मूक फिल्म थी। इसके बाद वह एक तरह से फिल्मी दुनिया से बाहर रहने लगे। संकल्प के धनी फाल्के ने एक बार फिर सवाक फिल्म 'गंगावतरण' (1937) से सिनेमा जगत में लौटने का प्रयास किया। लेकिन उनका जादू नहीं चल सका। 'गंगावतरण' उनकी पहली और अंतिम सवाक फिल्म थी।
दादासाहेब फालके कुछ प्रसिद्ध फिल्में :
• राजा हरीशचंद्र (1913),
• मोहिनी भस्मासुर (1913),
• सत्यवान सावित्री (1914),
• लंका दहन (1917),
• श्री कृष्णा जन्म (1918) ,
• कालिया मर्दन (1919).
Taken from wikipedia
दादासाहब नें १९ साल के लंबे करियर में कुल ९५ फिल्में और २७ लघु फिल्मे बनाईं।
- राजा हरिश्चंद्र (१९१३)
- मोहिनी भास्मासुर (१९१३)
- सत्यवान सावित्री (१९१४ )
- लंका दहन (१९१७)
- श्री कृष्ण जन्म (१९१८)
- कलिया मर्दन (१९१९)
- बुद्धदेव (१९२३)
- बालाजी निम्बारकर (१९२६)
- भक्त प्रहलाद (१९२६)
- भक्त सुदामा (१९२७)
- रूक्मिणी हरण (१९२७)
- रुक्मांगदा मोहिनी (१९२७)
- द्रौपदी वस्त्रहरण (१९२७)
- हनुमान जन्म (१९२७)
- नल दमयंती (१९२७)
- भक्त दामाजी (१९२८)
- परशुराम (१९२८)
- कुमारी मिल्ल्चे शुद्धिकरण (१९२८)
- श्रीकृष्ण शिष्टई (१९२८)
- काचा देवयानी (१९२९)
- चन्द्रहास (१९२९)
- मालती माधव (१९२९)
- मालविकाग्निमित्र (१९२९)
- वसंत सेना (१९२९)
- बोलती तपेली (१९२९)
- संत मीराबाई (१९२९)
- त मीराबाई (१९२९)
- कबीर कमल (१९३०)
- सेतु बंधन (१९३२)
- गंगावतरण (१९३७)-दादा साहब फाल्के द्वारा निर्देशित पहली बोलती फिल्म है।
रोचक तथ्य :
• 1885 में जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट, बॉम्बे में अपने सपनो को हासिल करते समय उन्होंने कई क्षेत्रो का ज्ञान हासिल किया और फिल्मो के जादूगर कहलाने लगे. वे अपने फिल्मो को अलग-अलग तकनीको के प्रयोगों पर जोर देते थे, और उनके उपयोगो को भी महत्वपूर्ण मानते थे.
• फालके के जीवन में उनकी दुनिया बदलने वाला पल तब आया जब उन्होंने साइलेंट फिल्म दी लाइफ ऑफ़ क्रिस्टी देखि. जिसमे स्क्रीन पर भारतीय भगवानो को दिखाया गया था. और उन्होंने भी अपनी पहली लघु फ़िल्म ग्रोथ ऑफ़ अ पी (Pea) प्लांट 1910 में बनाई.
• जब दादासाहेब अपनी पहली फ़िल्म बना रहे थे, तब उन्होंने जाहिरात भी की थी. तब उन्हें मुख्य भूमिका के लिये हीरो की जरुरत थी. इसे सुनते ही काफी लोग ख़ुशी से झूम उठे. काफी लोग हीरो बनने दादा साहेब के पास आ रहे थे. इस वजह से दादा साहेब को अपने इश्तियार में एक वाक्य लिखना पड़ा था, “बुरे चेहरे वाले कृपया न आये.”
दादा साहेब (Dadasaheb Phalke) ने पौराणिक फिल्म के चमत्कारपूर्ण दृश्यों को दिखाने के लिए फिल्मो की विषयवस्तु और ट्रिक फोटोग्राफी में काफी नये परिवर्तन किये | मूक फिल्मो से बोलती फिल्मो की ओर ले जाने का श्रेय दादा साहेब फाल्के को ही जाता है | दादा ने भारत की पहली स्वदेशी फीचर फिल्म का निर्माण किया | वस्तुत : वे फिल्मो के जनक है | उनके फिल्म क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए “दादा साहेब फाल्के” नामक पुरूस्कार की घोषणा की |
इस पुरुस्कार को सुचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारत के राष्ट्रपति स्वयं प्रदान करते है |फिल्म क्षेत्र में यह सबसे बड़ा और सम्मानीय पुरुस्कार है | यह पुरुस्कार फिल्म क्षेत्र में सभी प्रकार के विशिष्ट और उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है | इस पुरुस्कार में 2 लाख रूपये की राशि और स्वर्ण कमल दिया जाता है | यह 1970 से प्रदान किया जाता है | अब तक यह 40 से अधिक व्यक्तियों को दिया जा चूका है |
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार :
- वर्ष 1969 में पहला पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया था।
- यह पुरस्कार वर्ष के अंत में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों के साथ दिया जाता है। लेकिन वर्ष 2006 में बंबई हाई कोर्ट ने फ़िल्म महोत्सव निदेशालय को निर्देश दिया कि वह इस सम्मान के लिए बिना सेंसर की हुई फ़िल्मों पर ही विचार करे। इसे फ़िल्म महोत्सव निदेशालय ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला फ़िल्म महोत्सव निदेशालय के पक्ष में रहा। अदालती फैसले में देरी के कारण उस वर्ष के पुरस्कार की घोषणा वर्ष 2008 के मध्य में की गई।
- 2007 के पुरस्कार की घोषणा[1] सिंतबर, 2009 में हुई और इसी तरह वर्ष 2008 के पुरस्कार की 19 जनवरी, 2010 को तथा वर्ष 2009 के पुरस्कार की घोषणा 9 सितंबर, 2010 को हुई।
- इस पुरस्कार में भारत सरकार की ओर से दस लाख रुपये नकद, स्वर्ण कमल और शॉल प्रदान किया जाता है।
- वर्ष 2008 का 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' कर्नाटक के वी.के. मूर्ति को प्रदान किया गया था, जो इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को पाने वाले पहले सिनेमैटोग्राफर थे।
- ‘दादा साहेब फाल्के अकेडमी’ के द्वारा भी दादा साहेब फाल्के के नाम पर तीन पुरस्कार भी दिए जाते हैं, जो हैं - फाल्के रत्न अवार्ड, फाल्के कल्पतरु अवार्ड और दादा साहेब फाल्के अकेडमी अवार्ड्स।
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