भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र

भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र(सन् 1850-1885 ई.) 


भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र (सन् 1850-1885 ई.)  जीवन-परिचय- भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र जी का जन्‍म 9 सितम्‍बर 1850 ई. में काशी में हुआ था। इनके पिता बाबू गोपालचन्‍द्र जी थे, जो वे 'गिरधरदास' उपनाम से कविता करते थे। भारतेन्‍दु जी ने पॉंच वर्ष की अल्‍पायु में ही काब्‍य-रचना कर सभी को आश्‍चर्यचकित कर दिया। बाल्‍यावस्‍था में ही माता-पिता की छत्रछाया उनके सिर से उठ जाने के कारण उन्‍हें उनके वात्‍सलय से वंचित रहना पड़ा। अत: उनकी स्‍कूली शिक्षा में व्‍यवधान पड़ गया। आपने घर पर ही स्‍वाध्‍याय से हिन्‍दी, अँग्रेजी, संस्‍कृत, फारसी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं का उच्‍च ज्ञान प्राप्‍त कर लिया। 13 वर्ष की अल्‍पायु में ही उनका विवाह हो गया। वे स्‍वभाव से अति उदार थे। दीन-दुखियों की सहायता, देश-सेवा और साहित्‍य-सेवा में उन्‍होंने अपने धन को लुटाया। इस उदारता के कारण उनकी आर्थिक दशा शोचनीय हो गयी तथा वे ऋणग्रस्‍त हो गये। ऋण की चिनता से उनका शरीर क्षीण हो गया। 6 जनवरी 1885 ई. में 35 वर्ष की अल्‍पायु में ही इनकी मृत्‍यु हो गयी।

भारतेन्‍दु हरिश्‍चनद्र आधुनिक हिन्‍दी खड़ी बोली गद्य-साहित्‍य के जनक माने जाते हैं। अन्‍होंने गद्य-साहित्‍य के द्वारा एक ओर तो देश-प्रेम का सनदेश दिया और दूसरी ओर समाज की कुरीतियों तथा विसंगतियों पर तीक्ष्‍ण व्‍यंग्‍य एवं कटु प्रहार किए है। उनके साहित्‍य में भारतीय संस्‍कृति के प्रति निष्‍ठा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैै। भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र अपने युग की समसत चेतना के केन्‍द्र बिन्‍दु थे। वे वर्तमान के व्‍याख्‍,याता एवं भविष्‍य के द्रष्‍टा थे। भारतेन्‍दु के रूप में वे, हिन्‍दी साहित्‍य-जगत को प्राप्‍त हुए।

कृतियॉं- भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र जी प्रमुख कृतियां है।
  • विद्या सुन्‍दर 
  • रत्‍नावली 
  • पाखण्‍उ विडम्‍बन 
  • धनंजय विजय 
  • कर्पूर मंजरी 
  • मुद्राराक्षस 
  • भारत जननी 
  • दुर्लभ बंधु 
  • वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति 
  • सत्‍य हरिश्‍चन्‍द्र 
  • श्री चन्‍द्रावली विषस्‍य विषमौषधम् 
  • भारत-दुर्दशा 
  • नील देवी 
  • अँधेर नगरी 
  • सती प्रताप 
  • प्रेम-जोगिनी


सम्‍पादन- 
  • सन् 1868 ई. में '‍कवि-वचन-सुधा'
  • सन् 1873 ई.में हरिश्‍चन्‍द्र मैगजीन 


भारतेन्‍दु जी के वर्ण्‍य विषय थे- भाक्ति, श्रृंगार, समाज-सुधार, प्रगाढ़ देश-प्रेम, गहन राष्‍ट्रीय चेतना, नाटक और रंगमंच का परिष्‍कार आदि। उनहोंने जीवनी और यात्रा-वृत्तान्‍त भी लिखे है। तत्‍कालीन सामाजिक रूढि़यों को दृष्टि में रखकर उन्‍होंने हास्‍य और वयंग्‍यपरक अति सुन्‍दर लेख लिखे है।

भारतेन्‍दु जी बहुमुखी प्रतिभा के साहित्‍यकार थे, उन्‍होंने अनेक विधाओं में साहित्‍य सृजन किया ओर हिन्‍दी साहितय को शताधिक रचनाऍं समर्पित कर समृद्ध बनाया । काव्‍य-सृजन में भारतेन्‍दु जी ने ब्रजभाशा का प्रयोग किया ता गद्य-लेखन में उन्‍होंने खड़ी बोली भाषा को अपनाया। उन्‍होंने खड़ी बोली को व्‍यवस्थित, परिष्‍कृत और परिमार्जित रूप प्रदान किया। उन्‍होंने आवश्‍यकतानुसार अरबी, फारसी, उर्दू, अँग्रेजी, आदि भाषाओं के शब्‍दों का भी प्रयोग किया। भाषा में प्रवाह, प्रभाव तथा ओज लाने हेतु उन्‍होंने लोकोक्तियॉं एवं मुहावरों का भलीभॉंति प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। हमें विषय के अनुयप भारतेनदुजी के गद्य में विविध शैलियों के दर्शन होते है, जिनतें प्रमुख हैं वर्णनात्‍मक विचारात्‍मक, भावात्‍मक, विवरणात्‍मक व्‍यंग्‍यात्‍मक

लेखक-भारतेन्‍दु जी का काल हिन्‍दी साहित्‍य में भारतेनदु युग के नाम से विख्‍यात है। हिन्‍दी गद्य के जन्‍म एवं विकास की दृष्टि से उनका साळितय में अद्वितीय स्‍थान है।


27 टिप्‍पणियां:

  1. श्री चन्द्रावली (1876) अलग रचना है और विषस्य विषमौषधम (1876) अलग रचना है.चन्द्रावली एक नाटिका है और विषस्य विषमौषधम एक भाण. दोनों को एक साथ कैसे रखा जा सकता है . इसमें सुधार की आवश्यकता है .

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  2. Osm 🔰🔰🔰🔰🔰👌👌👌👌👌👍👍👍👍thanks sir

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  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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